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जेलों की दीवारों के पीछे: अपराधी, हालात और साजिश के शिकार

देश की जेलों में पेशेवर, परिस्थितिजन्य और साजिश के शिकार बंदी हैं। न्याय प्रणाली की धीमी रफ्तार और भ्रष्ट तंत्र के कारण कई निर्दोष लोग वर्षों तक जेल में सड़ते हैं।

देश की जेलों में तीन तरह के बंदी होते हैं। एक पेशेवर, दूसरे परिस्थितिजन्य, और तीसरे वे हैं जिन्हें पुलिस दबाव या साजिश के तहत जेल भेज दिया जाता है। पेशेवर अपराधी वे होते हैं जिनके लिए अपराध एक आदत बन चुका है। चोरी, डकैती, हत्या, तस्करी या संगठित अपराध इनकी जीवनशैली का हिस्सा होते हैं। इनका आपराधिक इतिहास लंबा होता है और ये अक्सर किसी गैंग या नेटवर्क का हिस्सा होते हैं।

परिस्थिजन्य अपराधी वे लोग होते हैं जो किसी अचानक घटी घटना, संपत्ति, पारिवारिक विवाद, तात्कालिक गुस्से या आत्मरक्षा जैसी परिस्थिति में अपराध कर बैठते हैं। अधिकतर मामलों में ये पहले कभी किसी आपराधिक गतिविधि में शामिल नहीं रहे होते।

फर्जी या साजिश का शिकार बंदी सबसे दुखद और चिंताजनक श्रेणी में आते हैं। इनमें वे लोग होते हैं जिन्हें सत्ता के दबाव, भ्रष्ट पुलिस तंत्र की खुन्नस या लालच, या किसी साजिश के तहत झूठे मुकदमे में फंसा दिया जाता है। कभी किसी विरोध की आवाज को दबाने के लिए, तो कभी किसी की व्यक्तिगत दुश्मनी या ज़मीन विवाद जैसे कारणों से भी निर्दोष लोगों को जेल की सलाखों के पीछे धकेल दिया जाता है।

इन तीनों श्रेणियों को पहचानना और अलग दृष्टिकोण से देखना आवश्यक है। जहां पेशेवर अपराधियों के लिए कड़ा सुधार और निगरानी जरूरी है, वहीं परिस्थितिजन्य और झूठे आरोपों में बंद लोगों के लिए न्यायिक सुधार, तेज़ सुनवाई और पुनर्वास की नीति आवश्यक है।

देश के लिए यह शर्म की बात है कि कोई निर्दोष व्यक्ति वर्षों तक जेल में सड़ता रहे, केवल इसलिए कि वह न्याय की धीमी रफ्तार और तंत्र की खामियों का शिकार है।

क्या हम एक ऐसे समाज की कल्पना कर सकते हैं जहाँ न्याय व्यवस्था इतनी संवेदनशील और तेज़ हो कि किसी निर्दोष को जेल का मुंह न देखना पड़े? और क्या हमारी जेलें वास्तव में सुधारगृह बन सकती हैं, जहाँ अपराधी वापस समाज के लिए उपयोगी नागरिक बनकर लौटें?

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यह सिर्फ सरकारों के लिए नहीं, हम सबके लिए सोचने का विषय है।
जब कभी जेलों में जाना होता है, तो देखकर दुख होता है कि मामूली अपराध या साजिश का शिकार हुए लोग, असक्त, वृद्ध, गरीब इसीलिए पड़े हुए हैं क्योंकि उन्हें त्वरित न्याय या बचाव के लिए न तो कोई स्रोत था, न पैसे।
आज भी अगर वे जेल के जहन्नुम से भी बुरी ज़िंदगी जी रहे हैं, तो वह इसलिए क्योंकि उनके पास तब पुलिस की जेब गर्म करने के लिए पैसे नहीं थे, और आज कानून व जेल व्यवस्था संभालने के लिए पैसे नहीं हैं।

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अनिल यादव एक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो Anil Yadav Ayodhya के नाम से जाने जाते हैं। अनिल यादव की कलम सच्चाई की गहराई और साहस की ऊंचाई को छूती है। सामाजिक न्याय, राजनीति और ज्वलंत मुद्दों पर पैनी नज़र रखने वाले अनिल की रिपोर्टिंग हर खबर को जीवंत कर देती है। उनके लेख पढ़ने के लिए लगातार OBC Awaaz से जुड़े रहें, और ताज़ा अपडेट के लिए उन्हें एक्स (ट्विटर) पर भी फॉलो करें।

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