जनसुराख “राख” में तब्दील हो गया है, क्योंकि गांधी मैदान में आयोजित रैली में न केवल भीड़ नदारद रही है, बल्कि प्रशासनिक विफलताओं ने पूरी योजना को ध्वस्त कर दिया है। प्रशांत किशोर और उनकी पार्टी ने बिहार में बदलाव का दावा किया था, लेकिन जब रैली का दिन आया है, तो वह बदलाव की कोई लहर नहीं दिखी है। भारी प्रचार और दावों के बावजूद, रैली की वास्तविकता कुछ और ही रही है, जो राजनीति के इस नए प्रयोग को लेकर कई सवाल खड़े कर गई है।
11 अप्रैल को पटना के गांधी मैदान में जनसुराख “राख” में तब्दील रैली का आयोजन किया गया है, जिसे बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव लाने का दावा किया गया था। प्रशांत किशोर, जो जनसुराख के प्रमुख हैं, ने रैली के दौरान राज्य की वर्तमान सरकार पर कई तीखे हमले किए हैं और बिहार में बदलाव की वकालत की है। लेकिन जब रैली का दिन आया है, तो यह देखा गया है कि भीड़ के नाम पर केवल खाली कुर्सियां रही हैं और प्रशासन द्वारा दी गई कठिनाइयों ने पूरी योजना को नाकाम कर दिया है।
गांधी मैदान में बैठने के लिए कुर्सियां तो लगाई गई थीं, खाने-पीने का इंतजाम भी किया गया था, लेकिन जब रैली का समय आया है तो भीड़ का कोई निशान नहीं रहा है। पुलिस ने भीड़ को नियंत्रित करने के लिए बैरिकेडिंग और अन्य सुरक्षा उपाय किए थे, लेकिन इन कोशिशों के बावजूद जनसुराख की रैली अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पाई है।
प्रशांत किशोर ने अपनी निराशा व्यक्त करते हुए मंच से प्रशासन पर जमकर निशाना साधा है। उन्होंने कहा है कि प्रशासन ने उनके कार्यकर्ताओं को गांधी मैदान में घुसने से रोका है और पिछले कुछ दिनों में उन्हें परेशान किया है। उन्होंने आरोप लगाया है कि बिहार की मौजूदा सरकार ने जनसुराख के प्रयासों को कमजोर करने के लिए हर मुमकिन कोशिश की है।
इसके अलावा, प्रशांत किशोर ने जनसुराख को लेकर एक और विवादास्पद बयान दिया है। उन्होंने इसे एक कॉर्पोरेट संस्था करार दिया है, जो बीजेपी की आईटी सेल के लिए काम करती है। यह बयान इस बात को उजागर करता है कि जनसुराख का राजनीति में वास्तविक उद्देश्य क्या है, और क्या यह असल में एक राजनीतिक दल है या फिर किसी और के हितों की सेवा करने वाली संस्था रही है।
रैली में शामिल हुए कुछ कार्यकर्ताओं ने अपनी नाराजगी जताई है। मनेर के एक ऑटो चालक ने बताया है कि उन्हें रैली में शामिल होने के लिए 1500 रुपये प्रति वाहन का वादा किया गया था, लेकिन जब वे पटना पहुंचे हैं तो आयोजकों ने उनसे संपर्क करना बंद कर दिया है। इस घटना ने रैली की वैधता पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
जनसुराख के द्वारा किए गए वादों को लेकर भी कई सवाल उठाए गए थे। पार्टी ने वादा किया था कि वे युवाओं को रोजगार देंगे, किसानों के लिए योजनाएं लाएंगे, और महिलाओं को सस्ती ब्याज दरों पर ऋण देंगे। हालांकि, रैली की विफलता ने इन वादों को नजरअंदाज कर दिया है और उनके समर्थक भी निराश हो गए हैं।
बीजेपी ने इस रैली पर तंज कसते हुए कहा है कि जनसुराख एक “किराए की भीड़” से ज्यादा कुछ नहीं है। बीजेपी ने इसे एक अस्थिर राजनीतिक प्रयोग करार दिया है और यह भी कहा है कि जनसुराख की भविष्यवाणी जल्दी ही गलत साबित होगी। बीजेपी का यह भी कहना रहा है कि किसी भी राजनीतिक दल के लिए जनता का समर्थन ही उसकी असली ताकत होती है, और जनसुराख ने यह साबित कर दिया है कि वह केवल एक राजनीतिक शोर था, जिसका कोई ठोस आधार नहीं रहा है।
आखिरकार, गांधी मैदान में हुई यह रैली जनसुराख “राख” में तब्दील हो गई है। प्रशांत किशोर और उनकी पार्टी के प्रयासों ने राजनीतिक दृष्टि से ज्यादा प्रभाव नहीं डाला है। अब यह सवाल उठता है कि क्या भविष्य में जनसुराख बिहार की राजनीति में एक स्थिर बदलाव ला पाएगा, या यह सिर्फ एक और असफल राजनीतिक प्रयोग साबित होगा?