“संविधान कोई किताब नहीं, बल्कि यह जीवन का दस्तावेज़ है, और इसकी आत्मा हमेशा समय की आत्मा होती है।” — डॉ. भीमराव अंबेडकर
प्रिय श्री नरेंद्र मोदी,
संविधान की आत्मा से, उस दुनिया से जहाँ लोकतंत्र केवल शब्द नहीं बल्कि जीने का तरीका है, आपको नमस्कार। मैं देख रहा हूँ — बहुत ध्यान से देख रहा हूँ। और सोचा, अब तो एक पत्र बनता है। इसलिए नहीं कि आप प्रधानमंत्री हैं, बल्कि इसलिए कि उस गणराज्य के लिए जिसे मैंने खून-पसीने से गढ़ा था — आज आवाज़ उठाना ज़रूरी है।
थोड़ा व्यंग्य करते हुए शुरू करता हूँ — बधाई हो! आपने वो कर दिखाया जो कई नेता नहीं कर सके। आपने असहमति को खतरा बना दिया, संसद को तमाशा, और चुनावों को राष्ट्रवाद के हाई-बजट शो। आखिरकार, जिस गणराज्य को मैंने अपने खून, पसीने और संघर्ष से गढ़ा, वह आज आपकी लोहे की पकड़ में डगमगाता नजर आ रहा है।
“दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र” आज पत्रकारिता, सामाजिक आंदोलनों और न्यायपालिका की आज़ादी से डरता है।
बधाई हो! आपने वो कर दिखाया जो तानाशाह भी नहीं कर पाए।
आपने असहमति को अपराध बना दिया। संसद को बहस की जगह प्रचार का मंच बना दिया। चुनाव अब लोकतंत्र नहीं, राष्ट्रवाद की हाई-ड्रामा सीरीज़ लगते हैं।
आपके भारत में आज़ादी को गूंगा बनाया जा रहा है। मीडिया अब सवाल नहीं करता, सिर्फ जयकार करता है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता अब रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली कुर्सियों में घुलती जा रही है।
ऐसा लोकतंत्र तो नहीं सोचा था मैंने…
मोदी जी, मैंने संविधान इस विश्वास के साथ बनाया था कि आने वाले नेता “संवैधानिक नैतिकता” का पालन करेंगे। लेकिन आज हम “बहुसंख्यक नैतिकता” को ही राष्ट्रहित कहकर बेचा जा रहा है।
हमारी बनाई संस्थाएं अब स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करतीं — वे सत्ता की छवि बचाने का जरिया बन गई हैं। संसद में बहस की जगह अब एकतरफा भाषण होते हैं। याद है, मैंने कहा था “अराजकता” से बचो? लेकिन आज आपकी सरकार बुलडोजर, प्रतिबंध और “भारत माता की जय” के नारों में यही भाषा बोल रही है।
संवैधानिक सुरक्षा कहाँ गई?
मैंने न्यायपालिका से उम्मीद की थी कि वो संतुलन बनाए रखेगी। लेकिन जब न्यायाधीश सेवानिवृत्त होकर किसी राजनीतिक पार्टी से सांसद (MP) बन जाते हैं या फिर राज्यपाल बन जाते हैं, तो “न्यायपालिका की स्वतंत्रता” अब एक लुप्त होती परिभाषा लगती है।
मीडिया? वो तो जनता की आवाज़ होनी चाहिए थी। आज वह टीआरपी का तमाशा बन गया है — रोटी की जगह बेमतलब बहसें, किसान-मज़दूरों की खबरें नदारद। कुछ जुझारू पत्रकार अभी भी सच्चाई का बोझ उठाए हुए हैं, लेकिन उन्हें गद्दार बताकर जेल में डाला जा रहा है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी अब मज़ाक बन चुकी है।
मैंने संविधान बनाया था ताकि सत्ता जवाबदेह हो, नागरिक आज़ाद हों, और हर इंसान को बराबरी मिले। लेकिन आपने तो बहुसंख्यकवाद को ही राष्ट्रवाद बना दिया। देशभक्ति के नारों में अब संविधान की साँस तक नहीं सुनाई देती।
अब बात करें जाति की?
मैंने कहा था — जाति जन्म पर आधारित अन्याय है, जो इंसान को इंसान नहीं मानता।
आप चुनावों में अक्सर मेरा नाम लेते हैं। लेकिन मेरे विचारों को भूल गए।
मैंने कहा था — जाति केवल श्रम का विभाजन नहीं, बल्कि श्रमिकों का विभाजन है — जन्म के आधार पर, योग्यता के नहीं।
लेकिन आपके “नए भारत” में जातीय अत्याचार जारी हैं। दलित छात्र आज भी कैंपस में आत्महत्या करते हैं, सफाईकर्मी गटर में मरते हैं, और सिस्टम पीड़ित को ही दोषी ठहराता है।
“सबका साथ, सबका विकास” — नारा तो सुंदर है, काश यह हकीकत भी होता। अनुसूचित जातियाँ और जनजातियाँ आज भी ज़मीन, शिक्षा और सम्मान के लिए संघर्ष कर रही हैं।
देशभक्ति अहंकार नहीं होती
आप देशभक्ति को अपनी ढाल बनाते हैं। लेकिन जब देशभक्ति में विनम्रता नहीं होती, तो वह तानाशाही बन जाती है।
सच्चा राष्ट्रवाद आलोचना को दबाना नहीं, बल्कि सुनना होता है। शक्ति असहमति को कुचलने में नहीं, बल्कि उससे संवाद करने में होती है।
आपने कहा भारत “लोकतंत्र की जननी” है — फिर विरोध क्यों आपको धर्मद्रोह जैसा लगता है?
इतिहास हम दोनों का मूल्यांकन करेगा
मैंने संविधान विश्वास के साथ लिखा था — कि आने वाली पीढ़ियाँ इसे संभालेंगी, इसमें जान फूंकेंगी। और उसे आगे चलकर तर्क और करुणा से चलाया जाएगा — तमाशे, डर और अंधभक्ति से नहीं।
इतिहास आपको भी परखेगा, श्री मोदी। और यह फैसला न तो व्हाट्सऐप फॉरवर्ड्स करेंगे, न सरकारी विज्ञापन — बल्कि भारत के वे आम लोग करेंगे जिन्हें आज भी नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।
मैं अपनी बात खत्म करता हूँ — शांति से नहीं, प्रतिरोध के साथ। वही प्रतिरोध जिसने इस देश को बनाया।
आपका,
डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर
भारतीय संविधान के शिल्पकार
(एक ऐसे नागरिक की नजर से, जो अब भी आपके सपनों में यकीन रखता है)