शरियत कानून को लेकर भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम और संवेदनशील सवाल पर विचार करने का निर्णय लिया है—क्या कोई मुसलमान, इस्लाम धर्म छोड़े बिना, शरियत के बजाय भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के तहत अपनी पैतृक संपत्तियों का बंटवारा कर सकता है?
यह मामला केरल के त्रिशूर ज़िले के निवासी नौशाद के.के. द्वारा दायर याचिका से जुड़ा है। नौशाद चाहते हैं कि उन्हें धर्म बदले बिना संपत्ति के मामलों में शरियत कानून के स्थान पर भारत के धर्मनिरपेक्ष उत्तराधिकार अधिनियम के अनुसार अधिकार मिलें। चीफ जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने 17 अप्रैल को इस याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र और केरल सरकार को नोटिस जारी किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को दो अन्य लंबित मामलों के साथ जोड़ने का आदेश भी दिया है। पहली याचिका सफिया पी.एम. की है, जो ‘एक्स-मुस्लिम्स ऑफ केरल’ की महासचिव हैं। उन्होंने खुद को “अविश्वासी मुस्लिम महिला” बताते हुए यह अनुरोध किया कि वे शरियत कानून के बजाय भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के तहत अपनी पैतृक संपत्तियों का निपटारा करना चाहती हैं।
तीसरी याचिका 2016 से लंबित है, जिसे ‘क़ुरान सुन्नत सोसाइटी’ ने दायर किया था। इन तीनों याचिकाओं का मूल प्रश्न यही है—क्या कोई मुसलमान धर्म परिवर्तन किए बिना शरियत कानून से बाहर निकलकर भारतीय कानून के अनुसार उत्तराधिकार तय कर सकता है?
यह मुद्दा सिर्फ एक व्यक्तिगत विकल्प नहीं, बल्कि भारत में लंबे समय से चल रही समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) की बहस से भी जुड़ा है। अगर कोर्ट शरियत कानून के विकल्प के रूप में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की अनुमति देती है, तो यह एक ऐतिहासिक फैसला माना जाएगा।
भारत में अभी धार्मिक आधार पर अलग-अलग व्यक्तिगत कानून लागू हैं। मुस्लिम समुदाय में संपत्ति बंटवारे के लिए शरियत कानून अपनाया जाता है, जिसमें बेटों और बेटियों को बराबर हिस्सेदारी नहीं मिलती। यही असमानता कई लोगों को भारतीय कानून अपनाने की ओर प्रेरित कर रही है।