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ओबीसी समाज का संघर्ष: सदियों से जारी सामाजिक और राजनीतिक अन्याय

ओबीसी समाज भारत की सबसे बड़ी सामाजिक इकाई है, जो आज भी अपने अधिकारों, प्रतिनिधित्व और सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष कर रहा है। जागरूक नेतृत्व ही इसका भविष्य बदल सकता है।

ओबीसी समाज के पास राजशाही व्यवस्था में कृष्णदेव राय और शिवाजी जैसे अतीत में गौरव जरूर हुए, लेकिन यह उपलब्धियाँ इन महापुरुषों की व्यक्तिगत थीं, इससे ओबीसी समूह का सामुदायिक उत्थान नहीं हुआ। हां, वर्तमान में पूरा राष्ट्र इन महापुरुषों से गौरवान्वित जरूर महसूस करता है और ओबीसी समाज भी इन महापुरुषों से खुद को जोड़ कर वर्तमान और भविष्य को गौरवशाली बनाने के सपने बुनता है।

राजशाही से लोकतांत्रिक व्यवस्था में हो रहे बदलाव का जो संक्रमण काल था, उसमें ओबीसी समाज के सशक्त नेतृत्व की उपस्थिति नगण्य थी।

लोकतांत्रिक व्यवस्था के शुरुआती दौर में, राजनीतिक नेतृत्व के नजरिये से ओबीसी समाज सबसे बहिष्कृत समाज था, जिसका कोई बेचारा नुमाइंदा मौजूद नहीं था।

ओबीसी समाज का दुर्भाग्य था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के सुधार के समय ओबीसी समाज के पास दलित समाज की तरह अंबेडकर जैसा बहुआयामी नेतृत्व नहीं था, जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत की सबसे बड़ी आबादी ओबीसी को, दलित समाज को मिल चुके अधिकारों को हासिल करने के लिए, आज़ाद भारत में भी आज़ादी के 77 वर्ष बीत जाने पर भी संघर्ष करना पड़ रहा है।

लोहिया जैसे लोगों ने ओबीसी समाज को संगठित करने और उनके अधिकार की जो पहल 50 के दशक में शुरू की थी, उसने हाशिए पर पड़े वर्ग के जागरूक व्यक्तियों के बीच एक राजनीतिक चेतना का सृजन किया, जिसमें उत्तर भारत से कर्पूरी ठाकुर, शरद यादव, मुलायम सिंह और लालू प्रसाद शामिल हैं।

लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, शरद यादव जैसे नेताओं के दबाव व संघर्ष ने मंडल कमीशन और प्रांतीय ओबीसी नेतृत्व को स्थापित किया।

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प्रांतीय ओबीसी नेतृत्व सत्तासीन होने के बाद सत्ता के वर्चस्ववादी समीकरण स्थापित करने की लालसा में न सिर्फ मिशन से भटका, अपितु बिखर भी गया।

दूसरी तरफ मंडल कमीशन से मजबूत हुआ ओबीसी समूह भी उसी सामाजिक व्यवस्था में खुद को पुनर्स्थापित करने का प्रयास करने लगा, जिस व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के बाद मंडल कमीशन आया था।

इस तरह ओबीसी के प्रांतीय राजनीतिक नेतृत्व की सत्ताभोगी वर्चस्ववादी सोच और मंडल से सशक्त हुए समाज का पुनः शोषणवादी व्यवस्था की तरफ शिफ्ट होना, ओबीसी समाज के राष्ट्रीय नेतृत्व की संभावनाओं को सबसे ज्यादा चोट पहुंचा रहा है।

ओबीसी के प्रांतीय नेतृत्व की राष्ट्रीय नेतृत्व की तरफ यात्रा तभी संभव होगी, जब ओबीसी के प्रांतीय नेताओं का एक लचीला संघ बने और ओबीसी समाज, ओबीसी के राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए उतनी ही अधीरता और प्रतिबद्धता दिखाए, जितनी वर्तमान में भगवा राष्ट्रवाद के लिए दिखा रहा है।

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अनिल यादव एक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो Anil Yadav Ayodhya के नाम से जाने जाते हैं। अनिल यादव की कलम सच्चाई की गहराई और साहस की ऊंचाई को छूती है। सामाजिक न्याय, राजनीति और ज्वलंत मुद्दों पर पैनी नज़र रखने वाले अनिल की रिपोर्टिंग हर खबर को जीवंत कर देती है। उनके लेख पढ़ने के लिए लगातार OBC Awaaz से जुड़े रहें, और ताज़ा अपडेट के लिए उन्हें एक्स (ट्विटर) पर भी फॉलो करें।

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