कल रात 8 बजे पीएम के राष्ट्र के नाम संदेश के बाद कई अहम सवाल उठे हैं, जिनका अब तक कोई साफ जवाब नहीं मिला है। ये सिर्फ विपक्ष की आलोचना नहीं है, बल्कि एक जागरूक लोकतंत्र की आवाज़ है जहां जनता को न केवल जवाब चाहिए, बल्कि पारदर्शिता की अपेक्षा भी होती है।
सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि युद्धविराम (सीज़फायर) की घोषणा भारत की ओर से क्यों नहीं हुई, बल्कि अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा क्यों की गई। यदि अमेरिका के कहने पर युद्धविराम हुआ, तो क्या भारत अब अपनी विदेश नीति में स्वतंत्र नहीं रहा। क्या हम कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भी वैश्विक शक्तियों की मध्यस्थता स्वीकार कर चुके हैं।
यह बात शिमला समझौते पर भी सवाल खड़े करती है, जिसमें तय हुआ था कि भारत और पाकिस्तान अपने मसले आपस में सुलझाएंगे। अगर अब अंतरराष्ट्रीय दबाव में फैसले लिए जा रहे हैं, तो क्या यह समझौते की अनदेखी नहीं है?\
पीएम ने अपने भाषण में सेना की बहादुरी और आतंकवाद पर पारंपरिक नीति को दोहराया गया, लेकिन ये साफ नहीं किया कि इस बार की घटना पर सरकार ने किया क्या है? कुछ बुनियादी सवाल अब भी हवा में हैं:
- आतंकी आखिर घाटी में घुसे कैसे?
- इतनी भारी सुरक्षा के बावजूद चूक कहां हुई?
- आम लोगों की सुरक्षा को लेकर लापरवाही क्यों दिखी?
- घटना के बाद किसी को जिम्मेदार ठहराया गया या नहीं?
- वो चारों आतंकी अब कहां हैं?
इसके अतिरिक्त, पीएम से यह भी अपेक्षा थी कि वे ट्रंप के उस बयान पर प्रतिक्रिया दें जिसमें उन्होंने कहा कि भारत-पाक युद्ध को उन्होंने व्यापारिक धमकी देकर रुकवाया। इस तरह के दावे अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की संप्रभुता और निर्णय क्षमता पर सवाल उठाते हैं। परंतु सरकार ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, जो जनता को असहज करती है।
हर देशवासी जानना चाहते हैं:
- क्या सीज़फायर से पहले सेना की सलाह ली गई?
- क्या भारत को इस बात की कोई गारंटी मिली है कि फिर ऐसा हमला नहीं होगा?
- ‘सेना को खुली छूट’ जैसा दावा फिर सीमित कैसे हो जाता है?
- और बीएसएफ के जवान पूर्णम साहू, जिसे पाकिस्तान ने पकड़ा है, उसकी रिहाई कब होगी?
देखिए साहब, लोकतंत्र में संवाद और पारदर्शिता शासन की बुनियाद होती है। जब सवालों के बदले केवल भावनात्मक बातें या पुरानी नीतियों का दोहराव होता है, तो यह न केवल जनमत को हतोत्साहित करता है, बल्कि एक गहरे अविश्वास को भी जन्म देता है।
आज देश को केवल “मन की बात” नहीं चाहिए उसे ज़मीन पर स्पष्टता, जवाबदेही और साहसी नेतृत्व की ज़रूरत है, जो जनता के सवालों से न भागे, बल्कि उनका सामना करे।