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नागपुर से दीक्षाभूमि तक: महाराष्ट्र के दलितों को क्यों नहीं छू पाया हिंदुत्व का असर

100 साल बाद भी आरएसएस-भाजपा महाराष्ट्र के दलितों, खासकर महार समुदाय की सोच में जगह नहीं बना सके। कोरेगांव-भीमा के बाद दूरी और बढ़ी, 2024 में दलित वोटों ने NDA को नकारा।

100 साल बीत गए, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उससे जुड़े संगठनों का जादू महाराष्ट्र के दलितों पर अब तक नहीं चल पाया है। ये संगठन राज्य के दलित समाज की सोच या राजनीति में कोई गहरी पकड़ नहीं बना सके हैं।

नागपुर में आरएसएस का हेडक्वार्टर और दीक्षाभूमि जहां डॉ. अंबेडकर का स्मारक है, दोनों एक-दूसरे से बस दो किलोमीटर दूर हैं। लेकिन इनके बीच जो सोच का फर्क है, वो इतना गहरा है कि जैसे दोनों अलग-अलग दुनियाओं से हों।

सोच का फासला

ये फर्क सिर्फ जगह का नहीं है, ये उस गहरी खाई को दिखाता है जहां हिंदुत्व की सोच दलितों को करीब तो लाने की कोशिश करती है, लेकिन सच में उन्हें अपना नहीं पाती। पास होते हुए भी दिल से दूर, यही इस प्रोजेक्ट की सबसे बड़ी नाकामी रही है।

आरएसएस जो अब 100 साल पूरे कर चुका है, खुद को हिंदू समाज को जोड़ने वाली ताकत कहता है। इसका मकसद हमेशा एक मजबूत हिंदू राजनीति खड़ी करना रहा है, जिसमें ऊंची जातियों के साथ-साथ ओबीसी, एससी और एसटी का भी साथ मिले।

इस प्लान ने शहरों और ओबीसी वर्ग में काम किया भी है। वही बीजेपी, जिसे कभी सिर्फ ब्राह्मण-बनिया पार्टी कहा जाता था, अब महाराष्ट्र की सत्ता में सबसे ऊपर है।

लेकिन कुछ लोग अब भी अलग खड़े हैं

मगर राज्य की करीब 12% दलित आबादी, खासकर अंबेडकर के विचारों से जुड़े महार समुदाय ने हमेशा से इस विस्तार का विरोध किया है।

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महाराष्ट्र के दलितों की अलग-अलग तस्वीर

यहां के दलित समुदाय में काफी विविधता है, जैसे महार, मातंग, चर्मकार, ढोर और वाल्मीकि। इनमें महारों ने अंबेडकर के रास्ते को अपनाया, बौद्ध धर्म में गए और आरक्षण के ज़रिए आगे बढ़े।

बाकी समुदाय जैसे मातंग, ढोर, वाल्मीकि अब भी सामाजिक तौर पर पिछड़े हैं। यही देखकर आरएसएस और बीजेपी ने इनमें अपनी जगह बनाने की कोशिश की।

छोटे-मोटे असर वाले कदम

इन वर्गों में आरएसएस ने अपने संगठन एबीवीपी और विश्व हिंदू परिषद के जरिए कुछ नेताओं को उभारा, जैसे राम सतपुते। लेकिन महार समुदाय की मजबूत वैचारिक सोच के सामने ये कोशिशें फीकी पड़ गईं।

महारों ने अंबेडकर को सिर्फ नेता नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक आदर्श माना है। वे हमेशा हिंदुत्व की सोच को लेकर शक में रहे हैं।

समरसता मंच: जोश तो था, असर नहीं

आरएसएस ने 1983 में पुणे में ‘समरसता मंच’ की शुरुआत की थी, ताकि दलितों से जुड़ाव बढ़ाया जा सके। नाम ऐसा रखा गया कि वो वामपंथ से अलग दिखे। लेकिन 40 साल बाद भी इसका असर सीमित ही रहा है।

मराठवाड़ा के एक कार्यकर्ता ने माना कि महार समाज में आरएसएस के लिए सहानुभूति दिखाना अब भी सामाजिक रूप से गलत माना जाता है। मतलब दूरी अब भी कायम है।

अविश्वास की जड़ें गहरी हैं

इस दूरी की वजहें भी हैं। महाराष्ट्र की दलित राजनीति को आकार देने वाली ताकतें, समाजवादी, वामपंथी और अंबेडकरवादी, हमेशा से आरएसएस-भाजपा को ऊंची जातियों की ताकत बढ़ाने वाली सोच के तौर पर देखती रही हैं।

शिवसेना, जो बीजेपी की पुरानी साथी रही है, उसने भी अंबेडकर को लेकर आधे-अधूरे काम किए और मराठवाड़ा यूनिवर्सिटी का नाम बदलने का विरोध करके इस शक को और गहरा कर दिया।

बीजेपी पर भरोसा क्यों नहीं बना

2014 से पहले तक बीजेपी, शिवसेना के पीछे खड़ी पार्टी थी। इसलिए दलितों में उसकी अपनी कोई मजबूत छवि नहीं बन पाई। हर चुनाव में उसे एक ऐसे समुदाय का सामना करना पड़ा, जो न सिर्फ सतर्क है बल्कि हर छोटे-बड़े संकेत को बहुत गहराई से देखता है।

प्रतीकवाद की हदें और कोरेगांव-भीमा की बड़ी दरार

भाजपा ने महार समुदाय तक अपनी बात पहुँचाने की असली कोशिश 2014 के बाद शुरू की, जब उसने महाराष्ट्र में सरकार बनाई। सत्ता में आते ही कुछ प्रतीकात्मक कदम उठाए गए, जैसे अमर साबले को राज्यसभा भेजना, रामकुमार बडोले को समाज कल्याण मंत्री बनाना, अंबेडकर का लंदन वाला घर खरीदना, और इंदु मिल में अंबेडकर स्मारक का शिलान्यास करना।

शुरुआत में इन फैसलों से अच्छी भावना तो बनी, लेकिन 2018 में कोरेगांव-भीमा हिंसा के बाद सारी मेहनत पर पानी फिर गया। दलित समाज ने इस झगड़े को हिंदुत्व से जुड़े संगठनों की ओर से हमले की तरह देखा। हिंसा के बाद सरकार पर आरोप लगे कि वो आरोपियों को बचा रही है।

आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों ने इस मुद्दे पर कोई ठोस जवाब नहीं दिया। जो दूरी थोड़ी कम हो सकती थी, वो और बढ़ गई। महार समुदाय में जो थोड़ी बहुत सहानुभूति थी, वो अब शक और गुस्से में बदल गई। अंबेडकर की सोच और हिंदुत्व के बीच खाई और गहरी हो गई।

भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ

भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ

विरोध, फायदा और फिर गलतफहमी

दिलचस्प बात ये रही कि इस खाई का फायदा भाजपा को मिल गया। कोरेगांव-भीमा कांड के बाद प्रकाश अंबेडकर की पार्टी वंचित बहुजन अघाड़ी (VBA) दोबारा उभर कर सामने आई। AIMIM के साथ मिलकर उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव में 7% वोट हासिल किए, जिससे कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को नुकसान हुआ और भाजपा को अप्रत्यक्ष फायदा मिला।

लेकिन इस फायदे ने भाजपा को गलतफहमी में डाल दिया। उन्हें लगने लगा कि दलित वोट अब हमेशा बंटे रहेंगे। इसी सोच में डूबकर उन्होंने 2019 से 2024 तक महारों और दलित युवाओं से जुड़ने की कोई ठोस कोशिश नहीं की।

2024 ने सब साफ कर दिया

2024 का चुनाव इस भ्रम को तोड़ गया। भाजपा को उम्मीद थी कि फिर से VBA विपक्ष का वोट काटेगी। लेकिन दो वजहों से ये प्लान नहीं चला पहली, प्रकाश अंबेडकर का महाविकास अघाड़ी के साथ अधूरा गठबंधन, और दूसरी, संविधान खतरे में है जैसा असरदार नारा, जिसने दलित वोटर को झकझोर दिया।

VBA का वोट शेयर गिरकर 2.78% रह गया और ज्यादातर वोट कांग्रेस-एनसीपी-शिवसेना के I.N.D.I.A गठबंधन को मिल गए। महार समुदाय ने, कुछ अपवादों को छोड़कर, खुलकर विपक्ष का साथ दिया ताकि एनडीए को हराया जा सके।

भाजपा और संघ ने इस बदलाव को देखा जरूर, पर इसका कोई मजबूत जवाब नहीं दे पाए।

आंकड़े बोले, रणनीति फेल

2014 के बाद भाजपा एससी आरक्षित सीटों पर खुद को मजबूत नहीं कर पाई। 2019 में उसे जो जीत मिली, वो विचारधारा की वजह से नहीं बल्कि वोट बंटने की वजह से थी। 2024 में दलित वोट जिस एकजुटता से भाजपा के खिलाफ गया, वो साफ बताता है कि ये समुदाय जब चाहे राजनीतिक रूख बदल सकता है।

एनडीए द्वारा जीती गई एससी-आरक्षित सीटें

संगठन की कमी

ये नाकामी किसी एक चुनाव की नहीं, बल्कि लंबे समय से चले आ रहे संगठनात्मक ढीलेपन की कहानी है। भाजपा ने दलितों से बात सिर्फ चुनाव के वक्त की जरूरत समझी, स्थानीय चेहरों को टिकट देकर काम चला लिया, लेकिन वैचारिक जुड़ाव नहीं बनाया।

एससी मोर्चा भी सिर्फ दिखावे के लिए बना रहा। 77 जिलों में सिर्फ दो जगहों पर महार और चर्मकार समुदाय से प्रतिनिधित्व था, यानी पूरी भागीदारी ही नहीं थी।

प्रमोद घरडे जैसे मजबूत नेता जब उभरे, तो उन्हें टिकट नहीं दिया गया। उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा और 23% वोट ले आए, जिससे भाजपा को नुकसान हुआ।

संस्कृति और डिजिटल मोर्चे पर हार

भाजपा ने कभी इस बात को गंभीरता से नहीं लिया कि दलित समाज की सोच किन बातों से बनती है। आनंद शिंदे, आदर्श शिंदे, संभाजी भगत जैसे कलाकारों का जबरदस्त असर है, लेकिन भाजपा का इनसे कोई जुड़ाव नहीं रहा।

संघ परिवार कभी ऐसा माहौल नहीं बना सका जो अंबेडकर की संस्कृति से जुड़ सके। मराठी में अंबेडकर पर बनने वाले सीरियल काफी पॉपुलर हैं, लेकिन उनसे भी कोई सीख नहीं ली गई।

डिजिटल दुनिया में भी दलित युवाओं से जुड़ने के मामले में भाजपा काफी पीछे है। इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर उनके सपोर्ट में कंटेंट बनाने वाले दलित क्रिएटर्स लगभग नहीं के बराबर हैं, जबकि विपक्ष इस मोर्चे पर मजबूत है।

बौद्ध बनाम हिंदू बहस में भी पिछड़ गए

वैचारिक स्तर पर भी भाजपा ‘बौद्ध बनाम हिंदू’ नैरेटिव को ठीक से संभाल नहीं पाई। संघ ने बुद्ध को हिंदू परंपरा में शामिल करने की कोशिश तो की, लेकिन वो कोशिश ऊपर-ऊपर की रही। दूसरी तरफ, कुछ संगठनों ने बुद्ध धर्म को हिंदू धर्म के खिलाफ दिखाने का काम किया।

इतिहास बताता है कि कई ताकतें बौद्ध धर्म को इस्तेमाल करके हिंदुओं को उनके मूल से काटने की कोशिश करती हैं। महाराष्ट्र में ये सोच काफी हद तक जगह बना चुकी है।

दीक्षाभूमि अब भी दूर है

नागपुर का रेशिमबाग और दीक्षाभूमि भले ही सिर्फ दो किलोमीटर दूर हैं, लेकिन सोच के मामले में दोनों दुनिया के अलग-अलग छोर पर हैं। जब तक भाजपा और संघ सिर्फ चुनाव के वक्त याद करने वाली राजनीति छोड़कर सच्चे और गहरे रिश्ते बनाने की कोशिश नहीं करते, तब तक ये दूरी बनी रहेगी।

महाराष्ट्र का दलित समाज अब भी भाजपा के लिए एक ऐसा किला है, जो दिखता तो है, पर उसके अंदर घुसना आज भी मुमकिन नहीं हुआ है।

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शिवम कुमार एक समर्पित और अनुभवी समाचार लेखक हैं, जो वर्तमान में OBCAWAAZ.COM के लिए कार्यरत हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में गहरी रुचि रखने वाले शिवम निष्पक्ष, तथ्यात्मक और शोध-आधारित समाचार प्रस्तुत करने के लिए जाने जाते हैं। उनका प्रमुख फोकस सामाजिक मुद्दों, राजनीति, शिक्षा, और जनहित से जुड़ी खबरों पर रहता है। अपने विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण और सटीक लेखन शैली के माध्यम से वे पाठकों तक विश्वसनीय और प्रभावशाली समाचार पहुँचाने का कार्य करते हैं। शिवम कुमार का उद्देश्य निष्पक्ष और जिम्मेदार पत्रकारिता के जरिए समाज में जागरूकता फैलाना और लोगों को सटीक जानकारी प्रदान करना है।

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