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लोकतंत्र के नाम पर अमेरिका की दोहरी नीति: आतंकवाद से ईरान तक का सफर

अमेरिका लोकतंत्र के नाम पर ईराक के बाद अब ईरान को निशाना बना रहा है, जबकि उसके करीबी तानाशाह देशों में लोकतंत्र नहीं है। असली मकसद सिर्फ तेल और रणनीतिक हित हैं।

अमेरिका को दुनिया में लोकतंत्र लाने का बड़ा शौक है, तो फिर वह उन्हीं देशों में लोकतंत्र लाने की कोशिश क्यों करता है, जिनसे उसकी दुश्मनी होती है?

जो देश अमेरिका के लिए रेड कार्पेट बिछाते हैं, जैसे सऊदी अरब, या जिनके यहाँ महिलाएं बाल लहराकर नृत्य कर उसका स्वागत करती हैं, जैसे UAE, और जो क़तर जैसा देश उसे ₹400 करोड़ डॉलर का हवाई जहाज़ गिफ्ट करता है, वहाँ कौन-सा लोकतंत्र है? यूँ कहें तो पूरे खाड़ी देशों में ही कौन-सा लोकतंत्र है?

मगर लोकतंत्र के नाम पर इराक को बर्बाद करने के बाद, अब वह लोकतंत्र के नाम पर ईरान के पीछे पड़ा है।

दरअसल, अमेरिका के पास किसी भी देश पर आक्रमण करने के लिए तीन घिसे-पिटे पुराने सेट नैरेटिव हैं:

  1. लोकतंत्र
  2. आतंकवाद
  3. इस्लामिक आतंकवाद

ये तीनों मुद्दे अमेरिका द्वारा ही गढ़े गए। आतंकवाद को धर्म से जोड़ने के लिए अमेरिका ने अपने स्टूडियो में गला काटने जैसी फिल्में शूट कराईं और इन्हें अपने संचार माध्यमों के ज़रिए पूरी दुनिया में फैलाया। उसने अपने पाले हुए 2-3 अरबी गुर्गों को डरावना बनाया और आतंकवाद को धर्म से जोड़कर इस्लामिक आतंकवाद का नैरेटिव बना दिया, केवल इसलिए ताकि एक धर्म को बदनाम किया जा सके और उस धर्म से शासित देशों पर आक्रमण कर उनके तेल संसाधनों पर कब्ज़ा किया जा सके।

इसी थ्योरी इस्लामिक आतंकवाद को भारत में एक राजनीतिक विचारधारा ने अपना लिया और अपने बहुसंख्यक समुदाय को यह कहकर डराया कि इनसे आपको केवल फलां व्यक्ति ही बचा सकता है।

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जबकि इस देश में तथाकथित इस्लामिक आतंकवाद का कोई ऐसा संगठित दौर नहीं रहा, जैसा कि लिट्टे (LTTE) का रहा, जिसने राजीव गांधी की हत्या की, या खालिस्तानी आंदोलन का, जिसने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या की।

मगर न तो लिट्टे के आतंकवाद को कभी हिंदू आतंकवाद कहा गया, न खालिस्तानी आतंकवाद को सिख आतंकवाद।

न अमेरिका ने ऐसा कहा, न भारत ने, न ही पूरी दुनिया ने। यही कारण है कि किसी मुसलमान द्वारा किया गया कोई भी अपराध इस्लामिक आतंकवाद या जेहाद कहलाता है, और यही काम अगर कोई और करे तो वह सिर्फ एक आपराधिक घटना मानी जाती है।

कहने का अर्थ यह है कि सत्ता और स्वार्थ के लिए यह खेल खेले जाते हैं, और इसमें पिसता है आम इंसान, फिर चाहे वह कहीं का भी हो।

और मुसलमान इसमें सबसे ज़्यादा पिसा है, पिस रहा है… बेवजह।

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अनिल यादव एक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो Anil Yadav Ayodhya के नाम से जाने जाते हैं। अनिल यादव की कलम सच्चाई की गहराई और साहस की ऊंचाई को छूती है। सामाजिक न्याय, राजनीति और ज्वलंत मुद्दों पर पैनी नज़र रखने वाले अनिल की रिपोर्टिंग हर खबर को जीवंत कर देती है। उनके लेख पढ़ने के लिए लगातार OBC Awaaz से जुड़े रहें, और ताज़ा अपडेट के लिए उन्हें एक्स (ट्विटर) पर भी फॉलो करें।

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