लेटेस्ट ख़बरे विधानसभा चुनाव ओपिनियन जॉब - शिक्षा विदेश मनोरंजन खेती टेक-ऑटो टेक्नोलॉजी वीडियो वुमन खेल बायोग्राफी लाइफस्टाइल

आनंदी प्रसाद बादल: बिहार की कला परम्परा के अभिनव चित्रकार

आनंदी प्रसाद बादल, बिहार के वयोवृद्ध चित्रकार-कवि हैं, जिनकी कला व कविता ग्राम्य जीवन, मानवता और प्रकृति की सजीव अभिव्यक्ति है। वे आज भी सृजनरत हैं।

बिहार में उपेन्द्र महारथी और बटेश्वरनाथ श्रीवास्तव के बाद आनंदी प्रसाद बादल ही एकमात्र ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने टेम्परा, वाश शैली, तैल चित्र सहित लगभग सभी समकालीन माध्यमों में काम किया है। 98 वर्ष की उम्र में भी बिहार का यह वरिष्ठ कलाकार उतना ही उर्जावान और सक्रिय है, जितना किसी भी युवा कलाकार से अपेक्षित है। परिमाण और वैशिष्टय – दोनों ही दृष्टियों से इनका सृजनात्मक व्यत्कित्व एक बड़े धरातल पर फैला हुआ है। किसी वट-वृक्ष की तरह इनकी जड़ें बिहार के कला जगत की धरती में बेहद गहरी फैली हुई हैं। इसलिए बिहार में आधुनिक-कला की यात्रा को समझने के लिए आनंदी प्रसाद बादल के जीवन और उनकी कला-यात्रा को जानना जरूरी है।

बचपन की स्मृतियाँ और जन्मतिथि का रहस्य

आनंदी प्रसाद बादल का जन्म पूर्णियाँ जिले के नन्दगोला नामक गाँव में हुआ था, जो उनका ननिहाल था। जब वे डेढ़-दो वर्ष के हुए तो अपने पैतृक गाँव श्रीपुर चले आये। उनके पिता कृष्णलाल मंडल खाते-पीते किसान थे। श्रीपुर में कोई  प्राथमिक विद्यालय नहीं था। फलका में प्राथमिक विद्यालय था, लेकिन श्रीपुर से उसकी दूरी लगभग तीन किलोमीटर थी। छोटे एवं अबोध बालक को उतनी दूरी भेज कर पढ़ाना संभव नहीं था। इसलिए बादल को अक्षर-ज्ञान विलंब से हुआ। बादल का बचपन बाल-सखाओं के साथ खेल-कूद, खेतों-खलिहानों तथा पेड़-पौधों की छाया में बीता। जब वे नौ वर्ष के हुए तो उनका नामांकन फलका के प्राथमिक विद्यालय में कराया गया। नामांकन के समय इनकी जन्म तिथि तो वास्तविक रखी गई। लेकिन वर्ष में फेरबदल कर दिया गया। इनके शैक्षणिक प्रमाण-पत्रों में जन्म तिथि 11 जनवरी, 1933 उल्लेखित है जबकि बादल अपनी जन्म तिथि 11 जनवरी, 1928 बताते हैं। बादल के मुताबिक उन दिनों साक्षरता कम थी। 1934 में आये भूकंप को उन दिनों काल या उम्र निर्धारण का जरिया माना जाता था। 15 जनवरी, 1934 को बिहार में आये भूकंप के समय इनकी उम्र छः वर्ष थी। उस महाभूकंप की याद कर बादल आज भी सिहर उठते हैं। कहते हैं – ‘‘दोपहर बाद दो बजकर तेरह मिनट का वक्त था। अचानक धरती जोर से हिली और दरारें फटने लगी। धरती के अंदर से आवाज आती सुनाई पड़ रही थी।‘‘ उस भूकंप में बिहार में बड़ी तादाद में लोगों की जाने गई थीं और रिक्टर स्केल पर उसकी तीव्रता 8.4 आंकी गई थी।

चित्रकला में रुझान और ‘बादल’ नाम की शुरुआत

फलका प्राथमिक विद्यालय से मिडिल परीक्षा पास करने के बाद इनका नामांकन कुरसेला हाई स्कूल में कराया गया। बादल का मन पढ़ाई में कम और घुमने-फिरने तथा पेंटिंग में ज्यादा लगता था। पाठ्य-पुस्तकों का खूबसूरत रेखांकन इन्हें आकर्षित करता था। बादल कहते हैं -‘‘ कक्षा चल रही  होती और मैं बाहर में उड़ा-उड़ा यहाँ-वहाँ फिरता रहता था। कभी शिक्षकों की पकड़ में नहीं आता। एक दिन वर्ग-शिक्षक ने झुंझला कर कह दिया कि यह बादल जैसा उड़ता रहता है। उसी दिन से मेरे नाम के साथ ‘बादल‘ शब्द जुड़ गया। तब तक मैं आनंदी प्रसाद था।‘‘  जब बादल कक्षा में होते तो पाठ्य-पुस्तकों में छपी तस्वीरों की नकल उतारने में इनका मन खूब रमता था। एक दिन बादल की नकल की हुई तस्वीर पर शिक्षक जयदेव ठाकुर की नजर पड़ गई। वे उसकी उत्कृष्टता देखकर अचरज में पड़ गए। विद्यालय की तरफ से सरस्वती पूजा के समय ‘‘अरुणोदय‘‘ नामक हस्तलिखित पत्रिका निकलती थी। शिक्षक जयदेव ठाकुर ने उस पत्रिका के लिए रचनाओं के संग्रह से लेकर उसे विभिन्न रंगों और चित्रांकनों से सजाने का जिम्मा बादल को सौंप दिया। उस दौरान बादल ने विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया। उस पत्रिका की चित्र-सज्जा और आवरण-पृष्ठ इतना खूबसूरत हुआ करता था कि छात्र उसकी एक झलक देखने को बेचैन रहते थे। यह पत्रिका स्कूल के छात्रों को बारी-बारी से दी जाती थी। उस पत्रिका का लोकार्पण ज्यादातर स्थानीय कांग्रेसी नेता भोला पासवान शास्त्री से कराया जाता था। बादल ने उस दौरान अनेक पारितोषिक एवं पुरस्कार प्राप्त किये।

क्रांतिकारी चेतना और स्वतंत्रता आंदोलन में बाल भागीदारी

वह समय राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन का था। स्वतंत्रता -आन्दोलन तीव्रतर होता जा रहा था। पूरा देश राजनीतिक दृष्टि से जाग उठा था। पूर्णियाँ भी उससे अछूता नहीं था। पूर्णियाँ का टीकापट्टी क्रांतिकारियों का केन्द्र था, जिसके नेता मोहित लाल पंडित थे। बादल के दादा जगन्नाथ मंडल भी स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय थे। हालांकि उस समय बादल की उम्र कम थी। लेकिन दादा जगन्नाथ मंडल एवं मोहित लाल पंडित के सान्निध्य में रहने के कारण आन्दोलन में उनकी रुचि जग गई थी। उन दिनों क्रांतिकारियों की ओर से लोगों का उत्साह एवं मनोबल बनाये रखने के लिए पर्चे-पम्पलेट निकलते थे। हाथ से लिखी हुई या साइक्लोस्टाइल किये गए उन पम्पलेटों में क्रांति के समाचार तथा कविताएँ हुआ करती थी। वे पर्चे-पम्पलेट गाँवों में बहुत सर्तकता से वितरित किये जाते थे। बादल उन पर्चे एवं पम्पलेट को गाँव-गाँव में बांटने लगे। खुफिया विभाग परेशान था कि ये पर्चे-पम्पलेट कहाँ से, कैसे निकलते है और किस प्रकार गाँव-गाँव तक पहुँच जाते है। चूँकि बादल की उम्र कम थी, इसलिए खुफिया विभाग का ध्यान कभी इनकी तरफ नहीं गया।

शरारत, अंधविश्वास और किशोरावस्था की यादें

छात्र-जीवन के दौरान शरारत में भी इनका खूब मन लगता था। शरारत की एक घटना को ये बड़े चाव से सुनाते हैं। एक दिन फुटबाॅल खेलकर ये घर लौट रहे थे। उनका एक दोस्त भी साथ में था। रास्ते में नदी किनारे एक नरमुंड दिखाई पड़ा। बादल को शरारत सुझी। दोस्त की सहायता से उस नरमुंड पर सिंदुर और ओढ़ऊल का फूल चढ़ाकर रात्रि में चुपके से गाँव के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के दरवाजे पर रख दिया। उन दिनों लोग अंधविश्वास एवं अशिक्षा के घोर अंधकार में डूबे हुए थे। चुडैल, डायन और भूत-प्रेत आदि दुष्टात्माओं का अस्तित्व चरम पर था। नरमुंड को देख सुबह-सुबह पूरे गाँव में हंगामा मच गया। आनन-फानन में झाड़-फूंक करने वाले ओझा को बुलाया गया। आसपास के गाँवों से भी लोग जुटने शुरू हो गए। एक प्रकार का मेला लग गया। ओझा ने पहुँचते ही जलती आग में लोहवाम एवं मिर्च डालकर एक खास तरह का गंध पैदा किया। फिर उसने घोषणा की कि गाँव पर बहुत बड़ा आफत आने वाला है। ग्रामीण डर गए। उनके अनुनय-विनय पर विचित्र स्वर में मंत्रोच्चारण, गाने व उछलने-कूदने के बाद ओझा ने कहा कि मैंने प्रेत को बांध दिया है। इसके एवज में उसे मुर्गा, दारू और ढे़र सारे पैसे मिले। इन्हीं स्थितियों-परिस्थितियों के बीच बादल ने 1954 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसी वर्ष इनकी शादी टीकापट्टी की चिन्तामणी देवी के साथ हो गई।

कलाकार बनने की आकांक्षा और पटना जाने का निर्णय

मैट्रिक के बाद बादल अपने भविष्य को लेकर उधेड़बुन में थे। इनका झुकाव चित्रकला के प्रति था। लेकिन इनके पिता की दृष्टि में चित्रकला कोई सम्मानीय कार्य नहीं था। पिता की इच्छा इन्हें दरोगा बनाने की थी। लेकिन आजादी की लड़ाई के दौरान क्रांतिकारियों पर पुलिस द्वारा ढ़ाई गई क्रूरता इन्होंने अपनी आँखो देखी थी। इसलिए दारोगा के प्रति इनके मन में वितृष्णा का भाव था। एक ओर पिता की इच्छा और दूसरी ओर कलाकार बनने की आकांक्षा साथ-साथ चलती रही। पिता इनके लिए दारोगा की नौकरी की तलाश में थे। एक दिन बादल की मुलाकात भोला पासवान शास्त्री से हुई। उन्होंने इन्हें पटना आर्ट काॅलेज में नामांकन कराने की सलाह दी। यह बात इन्हें जँच गई और एक दिन से घर में किसी को  बिना कुछ बताये अपने बनाये हुए कुछ चित्र, खाने-पीने की कुछ सामग्री और पैसा लेकर पटना के लिए निकल पड़े।

whatsapp logoओबीसी आवाज चैनल को फॉलो करें

पटना में संघर्ष से सफलता तक का सफर

पटना में बादल का तो न कोई पूर्व परिचित था और न रहने का कोई ठिकाना। थोड़े बहुत जो पैसे और समान घर से लेकर आये थे, वे भी खत्म हो गए। यह इनके लिए दुर्गम संघर्षों का दौर था। भोजन के भी लाले पड़ने लगे थे। कई दिनों तक अर्थाभाव से जूझते रहे। पटना जंक्शन के मुसाफिर खाना में रात काटना मजबूरी थी। उन दिनों पटना आर्ट काॅलेज के छात्र पटना जंक्शन पर बैठकर स्केच किया करते थे। उनमें से एक छात्र से इनकी जान-पहचान हो गई। नाम था- शारदा प्रसाद देव। वो भी उनके गृह जिले पूर्णियाँ के ही रहने वाले थे। बादल ने अपने बनाये हुए कुछ चित्र उन्हें दिखाकर पटना आर्ट काॅलेज में नामांकन की अपनी इच्छा से अवगत कराया। देव उन चित्रों को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और बादल को अपने घर लेते गए। देव उन दिनों सुप्रसिद्ध चित्रकार उपेन्द्र महारथी के साथ उनके राजभवन वाले फ्लैट में रहा करते थे। देव एक दिन इन्हें लेकर पटना आर्ट काॅलेज के तत्कालीन प्राचार्य राधामोहन के पास गए। तब पटना आर्ट काॅलेज बंदर बगीचा स्थित व्हाइट हाउस में चलता था। राधामोहन ने बादल की परीक्षा ली और उनकी प्रतिभा से पूरी तरह आश्वस्त होकर नामांकन की अनुमति दे दी। नामांकन के समय प्रथम वर्ष की वार्षिक परीक्षा में मात्र दो माह शेष थे। दस माह के पाठ्यक्रम को इन्होंने मात्र दो माह में ही पूरा कर लिया और वार्षिक परीक्षा में भी अव्वल आये। फलस्वरूप इनकी फीस माफ कर दी गई। भोला पासवान शास्त्री तब सूबे के कल्याण मंत्री थे। उनकी पहल से इन्हें 40 रूपया मासिक छात्रवृत्ति मिलने लगी। अब इनका छात्र-जीवन अपनी रौ में चलने लगा।

पटना आर्ट कॉलेज में प्रशिक्षण और ग्राम्य जीवन की चित्रात्मक अभिव्यक्ति

पटना आर्ट काॅलेज के प्राचार्य राधामोहन और शिक्षक बटेश्वरनाथ श्रीवास्तव जैसे विख्यात कला गुरुओं की आँखो से बादल को दुनिया देखने का लाभ मिला। बटेश्वर श्रीवास्तव ने इन्हें चित्रकला के मूल सिद्धान्त सिखाये। चित्रकला के इस आरंभिक प्रशिक्षण को इन्होंने बड़े चाव से अपने मन में बसा लिया। तड़के दिन निकलने से लेकर देर रात तक वे चित्र रचना में तल्लीन रहते। यह वह समय था, जब बंगाल स्कूल के कलाकारों ने भारतीय लोक एवं पारम्परिक कलाओं को गौरवान्वित करते हुए अपनी-अपनी शैलियाँ विकसित कर ली थी। दूसरी तरफ प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के कलाकारों ने बंगाल शैली को लगभग नकारते हुए पश्चिमी कला आन्दोलन को अपनी कला शैलियों में शामिल कर लिया था। गुजरात के भावनगर में ग्रुप-1890 की स्थापना भी लगभग इसी दौर में की गई, तो दिल्ली में दिल्ली शिल्पी चक्र द्वारा समकालीन कला की जमीन तैयार की जा चुकी थी। लगभग इसी दौर में बड़ौदा विश्वविद्यालय का कला संकाय भी अपने तरीके से आधुनिक कला आंदोलन को गति दे रहा थ। उधर बंगाल स्कूल वाले बंगाल में ही विकास भट्टाचार्जी जैसे कलाकार सतवाडोर डाली से प्रभावित होकर अति यथार्थवादी चित्र रच रहे थे। के.सी. पणिकर के नेतृत्व में दक्षिण भारत में आधुनिक कला की परिभाषाएं गढ़ी जा रही थी। इस तरह देश के विभिन्न राज्यों में आधुनिक कला आन्दोलन किसी न किसी रूप में जोर पकड़ रहा था। उस दौर में तत्कालीन बिहार के अधिकांश कलाकार मूर्त और अमूर्त कला में से किसी एक को चुनने की दुविधा से ग्रस्त थे। संकर शैलियों का प्रचलन बढ़ गया था। पटना स्कूल आर्ट काॅलेज के प्रशिक्षक और ज्यादातर छात्र बंगाल स्कूल शैली का अनुकरण कर रहे थे। शिक्षक बटेश्वरनाथ श्रीवास्तव ने बादल को इस बात के लिए प्रेरित किया कि जहाँ तक हो सके, वे अपनी रचनात्मकता की सीमाओं को बढ़ाये। उनसे प्रेरणा लेकर बादल ने अपने ग्रामीण जीवन की अवधि में प्रकृति के जिस अनुपम सौंदर्य की आभा इन्होंने देखी थी, उसे चित्रों में उड़ेलना शुरू कर दिया। ग्राम-संस्कृति के बहुरंग अर्थात ग्रामीण जीवन की जीवनचर्या को अपने चित्रों में प्रदर्शित करने लगे। इस दौरान इन्होंने ग्राम्य संस्कृति विशेष तौर पर स्त्रियाँ व बच्चे, समूह, लोक-त्यौहार और विषम परिस्थितियों में संर्घषरत लोगों के सांस्कृतिक क्रियाकलापों को अंकित किया। इन चित्रों को भरपूर सराहना मिली।

बॉम्बे भ्रमण और कनु देसाई से प्रेरणादायक मुलाकात

उन दिनों पटना आर्ट काॅलेज के छात्रों को शैक्षणिक भ्रमण के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। वर्ष 1955 के मई माह की बात है। एक बार शैक्षणिक भ्रमण पर इन्हें बम्बई जाने का मौका मिला। घुमते-घुमते वे वी शांताराम फिल्म स्टूडियो में प्रवेश कर गए। उस स्टूडियो में डिजाइन डायरेक्टर कनु देसाई थे। वे जन-साधारण के कलाकार थे और गाँधी जी जैसे महान नेताओं के सम्पर्क में रह चुके थे। उस दिन ‘झनक-झनक पायल बाजे‘ फिल्म की शूटिंग चल रही थी। इस फिल्म को 1956 में कलात्मक सज्जा, छवि-अंकन और रंग-योजना के लिए सर्वश्रेष्ठ फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। बादल ने अपने साथ लाए हुए चित्रों को कनु देसाई को दिखाया। उन चित्रों को देखकर कनु देसाई बहुत प्रसन्न हुए और कुछ दिनों के बाद जब वे अपने गृहनगर गुजरात गए तो बादल को अपने साथ लेते गए। कनु देसाई वाश पेंटिंग करते थे। लगभग 15-20 दिनों तक कनु देसाई के साथ रहने के दौरान बादल के चित्रण में वे तत्व उभरे, जो सशक्त, प्रभावशाली और मुखर होकर प्रत्येक घटना और विभिन्न प्रेरणा-स्त्रोतों के छोरों को छू सके।

महारथी और बटेश्वरनाथ से मिली दिशा

तब पटना आर्ट काॅलेज का अपना कोई छात्रावास नहीं था। कुछ महीने तक बादल उपेन्द्र महारथी के साथ रहे। महारथी जी ज्यादातर वाश एवं टेम्पर पेंटिंग करते थे। महारथी अपनी अंजता शैली के चित्रों के लिए मशहूर थे – मनोहारी वक्र देहयष्टि, मधुर मुस्कान, अधमुँदी हिरनी-सी आँखे, पतली लहरीली बांहे और लंबी शुडाकार अंगुलियाँ। यह उनकी विशिष्टता थी। उनकी इस विशिष्टता ने बादल को प्रभावित किया। बादल अपने शिक्षक बटेश्वरनाथ श्रीवास्तव के रंग के प्रयोग से भी प्रभावित थे, जिसके माध्यम से सहजता और लालित्य के साथ आकृति को वे उभारते थे। इन दोनों कलाकारों से प्रभावित होकर बादल भी उन्हीं की शैली में काम करने लगे। बादल के कला-जीवन को मोड़ देने में इन दोनो की महत्वपूर्ण भूमिका रही ।

यह वह दौर था, जब आजीविका के लिए शबीहें (प्रोट्रेट) बनाने का प्रचलन था। मूर्तिकार और चित्रकार  दोनों ही शबीहें बनाते थे। राधामोहन, उपेन्द्र महारथी और बटेश्वरनाथ श्रीवास्तव सरीखे कलाकार भी ज्यादातर प्रोट्रेट बनाते थे। बादल का कथन हैः ‘‘पोट्रेट बनाना मैंने उन्हीं से सीखा। उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर शबीहें बनाने के लिए मार्गदर्शन व  प्रोत्साहन दिया।‘‘

पटना का बौद्धिक परिवेश और साहित्यिक रुझान का विकास

बाद के दिनों में बादल साहित्यकार अनूपलाल मंडल के मछुआटोली स्थित आवास पर रहने लगे। अनूपलाल के आवास पर साहित्यकारों का जमावड़ा लगा रहता था, साहित्य पर चर्चाएँ होती थी। बादल का कहना है, ‘‘वो दौर पटना का बहुत सुनहरा दौर था। बड़े से बड़े लेखक और साहित्यकार पटना में मौजूद थे। केदारनाथ मिश्र प्रभात थे, रामधारी सिंह दिनकर थे, शिवपूजन सहाय थे, फणीश्वरनाथ रेणु, मोहनलाल महतो ‘वियोगी‘ थे ।किस-किस को याद करें। लक्ष्मी नारायण सुधांशु साहित्यकार के साथ राजनेता भी थे। पटना में बौद्धिक माहौल हुआ करता था। साहित्यिक जगत की इन जानी-मानी प्रतिभाओं की बाते सुन-सुनकर मुझमें भी साहित्य के प्रति लगाव हो गया और में चित्रकारी के साथ कलमकारी भी करने लगा। यदा-कदा कुछ लिखने लगा।‘‘ शिवपूजन सहाय 1956 से 1959 तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के संचालक थे। उनके कार्यकाल में परिषद के 60 गौरव-ग्रंथ प्रकाशित हुए थे। साथ ही और भी कई महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुई थी। सहाय के अनुरोध पर बादल उन ग्रंथो-पुस्तकों का चित्र-सज्जा और आवरण-चित्र बनाते  थे। 

विदेश यात्रा, संघर्ष के दिन और नेहरू जी से प्रेरणादायक भेंट

वर्ष 1959 में पटना आर्ट काॅलेज से डिप्लोमा लेने के बाद ये आजीविका की तलाश में यत्र-तत्र भटकने लगे। उन्हीं दिनों भारत सरकार की पहल पर प्रत्येक राज्य से एक कलाकार को विदेश भेजा जाना था। तत्कालीन कल्याण मंत्री भोला पासवान शास्त्री की संस्तुति पर इन्हें 1961 में जापान और फिलीपींस जाने का मौका मिला। जापान में बादल अनेक चित्रकारों से मिले और उनके कला-संसार को निकट से देखा और परखा। उन दोनों देशों की यात्रा ने चित्रकला के मूलभूत पक्षों के इनके अनुभव को और समृद्ध बनाया। वहाँ से लौटकर ये अमृर्त कला की ओर मुखातिब हो गए।

जापान और फिलीपींस से लौटने के बाद भी बादल को कोई बड़ा काम नहीं मिला और ये संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करते रहे। उन दिनों की अनगिनत स्मृतियों में से दो स्मृतियाँ बादल के ह्दय के कोमल तार को आज भी झंकृत करती रहती है। सन 1961 में पटना में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन होना था। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डाॅ. श्रीकृष्ण सिंह ने 40 फीट लंबा एवं 10 फीट ऊँचे मंच पर भगवान बुद्ध का जीवन-चरित्र उकेरने की जिम्मेवारी उपेन्द्र महारथी को सौंपी थी। अधिवेशन शुरू होने में सिर्फ दो दिन का समय बचा था और इस अल्प अवधि में यह जिम्मेवारी लेने के लिए पटना का कोई भी कलाकार तैयार नहीं था।  महारथी ने वह काम बादल को सौंप दिया, काम बड़ा दुष्कर था। लेकिन बादल अपने गुरु का आदेश मानने को विवश थे। बादल पेंट, ब्रश वगैरह लेकर तस्वीर बनाने बैठ गए।  उस दिन की घटना का वर्णन वह कुछ इस प्रकार करते हैं, ‘‘रात्रि के 1 बज रहे थे। अधिवेशन की तैयारी जोरों पर थी। टेंट, तंबू और पंडाल सज रहा था। मैं कैनवास पर सुध-बुध खोकर पेंटिंग कर रहा था। तभी मेरी पीठ पर किसी ने हाथ रखा। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो पंडित जवाहर लाल नेहरू, श्रीकृष्ण मेनन और डाॅ. श्रीकृष्ण सिंह समेत दर्जनों लोग थे। मैं हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। नेहरू जी ने मेरा पीठ थपथपाकर कहा कि मैं काफी देर से तुम्हें पेंटिंग बनाते देख रहा हूँ। युवकों में ऐसी ही तन्मयता होनी  चाहिए। तभी जीवन में कुछ बड़ा किया जा सकता है। तबतक नेहरू जी को चित्रों में देखा था, उस दिन उनका प्रत्यक्ष आर्शीवाद पाकर खुद को धन्य महसूस कर रहा था। तड़के सुबह महारथी जी वहाँ पहुँचे। पेंटिंग कार्य लगभग पूर्ण होने को था। महारथी जी भौंचक थे। उन्हें अपनी आँखों पर सहसा भरोसा नहीं हो रहा था। उन्होंने मुझे गोद में उठा लिया और कहा कि तुम विश्वकर्मा हो।‘‘

‘तीसरी कसम’ की पेंटिंग और नौकरी के साथ कला साधना

बादल के जीवन की दूसरी महत्वपूर्ण घटना इसके दो-तीन वर्षों के बाद की है। सुप्रसिद्ध अभिनेता राजकपूर ‘तीसरी कसम‘ फिल्म बना रहे थे। वे उसी सिलसिले में फणीश्वरनाथ रेणु से मिलने पटना आये हुए थे। रेणु ने उस अवसर पर बादल को भी बुला रखा था। फिल्म की पटकथा पर दोनों में काफी देर तक गुफ्तगू होती रही। बातचीत के क्रम में रेणु ने बादल से कहा कि फिल्म में बैलगाड़ी का दृश्य है, तुम उसकी पेंटिंग बनाकर दिखाओं। बादल ने आनन-फानन में वह पेंटिंग बना दी। राजकपूर ने पूछा कि तुम्हारी पेंटिंग में बैल का सींग टेढ़ा क्यों है? लंबा-लंबा होना चाहिए। बादल ने जवाब दिया – ‘‘ई बिहार है, यहाँ बैल का सींग टेढ़ा ही होता है।‘‘ राजकपूर और रेणु ठठाकर हँस पड़ें। बहरहाल, राजकपूर को वह पेंटिंग बहुत पसंद आई और वे उसे अपने साथ बंबई लेते गए।

बादल को सरकारी नौकरी का आकर्षण नहीं था। लेकिन पेंटिंग से घर-परिवार चलाना मुश्किल हो रहा था। चार छोटे भाई-बहनोें के भरण-पोषण की इन पर जिम्मेवारी थी। इसलिए ये नौकरी की तलाश में जुट गये। इनका प्रयास रंग लाया और 1961 में बिहार सरकार के उद्योग विभाग में सहायक की नौकरी मिल गई। उद्योग विभाग में दिनेश बक्शी और दामोदर अम्बष्ट जैसे नामचीन कलाकार पहले से कार्यरत थे। उनसे संपर्क का प्रचुर मात्रा में इन्हें लाभ मिला। एक वर्ष बाद उन्हें बिहार राज्य खादी ग्रामोद्योग बोर्ड में प्रदर्शनी पदाधिकारी की नौकरी मिल गई। यहाँ उनके मनोनुकूल कार्य था। नौकरी के संग-संग पेंटिंग कार्य इनके जीवन का अविभाज्य अंग-प्रत्यंग बन गया था। उन दिनों इनका जीवन अति व्यस्त रहता था।

ग्राम्य जीवन की झलक और सृजनधर्मी चित्रकला की स्वतंत्र उड़ान

वर्ष 1994 में सेवा निवृत्ति के बाद बादल पूरी तरह चित्र-रचना में रम गए। बादल के आरम्भिक चित्र मूर्त रहे, जो मुख्यतः वाश पेंटिंग और टेम्परा में उत्कीर्णित है। लेकिन बाद में पश्चिमी दुनिया और देश में आयी आधुनिक कला क्रान्ति का प्रभाव बादल पर भी पड़ा। मूर्त और अमूर्त दोनों विधाओं में इन्होंने चित्र बनाये। इन्होंने वादो, धाराओ या तकनीकों की कभी परवाह नहीं की। बादल न तो पश्चिमी कला के अन्धानुयायी हैं और न ही रुढ़ियों से चिपटे रहने वाले परम्परावादी। बुनियादी कला तत्वों में उनकी रुचि है। उनके लिए कला मूलतः सृजन है। उन्हें प्रकृति के विविध तत्वों-वनस्पति, पशु, इंसान – सभी से खूब प्यार है। ग्राम्य संस्कृति में पैदा होने एवं वहाँ की शस्य-श्यामला मिट्टी की सोंधी सुगंध में पालन-पोषण के कारण इनके बनाये चित्रों में ग्राम्य-जीवन की झलक-झाँकियाँ ज्यादातर दिखाई पड़ती है। गाँव में खेलते बच्चे, पनघट के पास स्त्रियाँ, मछली बेचने वाली मछेरिन, चरवाहा, श्रृगांर करती युवती, आदिवासी महिला जैसे चित्रों में सौंर्दय और आम आदमी से जुड़ी संवेदनाओं का स्वाभाविक चित्रण कर इन्होंने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। कृषक परिवार, नाई, हलवाहा, बुद्ध, प्रकृति, बंसत की वापसी, पृथ्वी आदि कितने ही ऐसे चित्र है, जो मन को अभिभूत कर देते हैं। सीता हरण इनकी एक ऐसी ही असाधारण कृति है। उसमें सीता के भाव-विम्ब का बड़ा ही मार्मिक चित्रण है। भयभीत सीता के मुखारबिन्द पर भावी संकट की द्योतक मायूसी और मलिनता है।

प्रसिद्ध कलाकृतियाँ: ठेलावाला से तीन रूप चार आँखें तक

बादल की एक चर्चित कलाकृति है ठेलावाला। इस कलाकृति में जीवन के संघर्षों से जूझते सामाजिक शोषण का शिकार, कुंठा और हताशा, जीवन की अनवरत दौर में थका-हारा और कलान्त ठेलावाला दर्शाया गया है। चित्र में पीला रंग बरबस शहर और उसके मकानों की याद ताजा कर देता है। रंगों के ठोस प्रभावों एवं ज्यामितीय गहन के साथ इनकी ये आकृतियाँ काफी प्रभावोत्पादक है। ‘‘श्रृंगार‘‘ में एक युवती अपनी सखी के बालों का श्रृंगार कर रही है। इसमें दोनों तरुणी बालाओं के लहराते बाल और शरीर की अस्तव्यस्त स्थिति का बड़ा ही सजीवता से चित्रण है। आसपास का वातावरण सौंदर्य की शीतलता एवं तरलता का द्योतक है, जो बरबस हमारी आँखों को खींच लेता है। बादल की एक और कलाकृति ‘‘तीन रूप चार आँखे‘‘ को खूब ख्याति और सराहना मिली है। इस कलाकृति में आकृतियों एवं आँखों का संतुलन अपने-आप में अनुपम है। पार्श्व के जंगली फूल इन आकृतियों को सहज सौंदर्य से भर देेेते है। टेम्परा शैली में बनाया गया यह चित्र रंग संयोजन, आलेखन सभी दृष्टियों से उत्तम है। कला समीक्षक अवधेश अमन का कहना है कि आनन्दी प्रसाद बादल की वाश-पेंटिंग और आगे तैल या एक्रिलिक कृतियों में स्त्रियों की आँखों की भी विकास-यात्रा हुई है, अपने चाक्षुष प्रखर सम्वादों के साथ।

जीवनानंद से भरी कलाकृतियाँ और सात दशकों की नवाचार-यात्रा

बादल के ज्यादातर चित्रों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उनमें हमें घृणा, हिंसा, अवसाद अथवा दुख के चिह्न नहीं दिखाई देते। जो दिखाई देता है वह आँखों में आमंत्रण लिये सुदर्शन, भाव-प्रणव यौवनाएँ। जब ये आकृतियाँ खेत, पनघट या बाजारो में काम करती दिखाई पड़ती है तो उनकी मुद्राओं में कोई शारीरिक या मानसिक बोझ नहीं दिखता। स्वभाव से बातूनी और झगड़ालू कुंजडिनो में भी सौंदर्य की अनोखी छटा दिखाई पड़ती हैं। प्राचीन समय में नारियो के लिए पनघट अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान होता था, प्रातःकाल और संध्या की वेला में वहाँ का वातावरण ग्रामीण ललनाओं की सुमधुर ध्वनि से मुखरित रहता था। ‘‘पनघट की ओर‘‘ चित्र में भावों का आदान-प्रदान करती महिलाओं का स्वाभाविक चित्रण है। चित्रों की अन्तरात्मा बोलती हुई-सी प्रतीत होती है। उसी तरह ‘‘नदी, मछली और मछेरिन‘‘ में मछेरिन की मुद्रा का स्वाभाविक चित्रण है। उसमें आकर्षण और सादगी है। टेम्परा शैली में चित्रित इन तीन चित्रों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वे जीवनान्द से परिपूर्ण है। इनकी कलाकृतियों में हरे, पीले, काले, नीले, गुलाबी और चटख लाल रंगों का सम्मिश्रण बड़ा खुशनुमा वातावरण उत्पन्न करता है। साथ ही सबसे सीधा सम्वाद स्थापित करता है। कोरोना संकट को लेकर इनके द्वारा बनाये गए चित्रों को भी पर्याप्त लोकप्रियता और ख्याति मिली है। उसमें कोरोना का भयावह रूप और उसके चंगुल में फंसे मानव की दयनीय मुद्रा का बड़ा ही करूणापूर्ण और मार्मिक चित्रण है। इस तरह बादल अपने सात दशकों के कला-जीवन में हमेशा नए-नए प्रयोग करते रहे हैं, जिस कारण वे आज भी समकालीन कला की नई पीढ़ी के साथ कदमताल करते हुए उनके प्रेरक-उत्स बने हुए हैं।

गांधी शृंखला, प्रतिष्ठित चित्र और पद्म सम्मान की प्रतीक्षा

गाँधी जी के जीवन प्रसंगों को लेकर इन्होंने 300 से ज्यादा चित्रों की श्रृंखला बनाई है और लगभग उतने ही चित्र अन्य नेताओं एवं मनीषियों के भी बनाये है। भिन्न-भिन्न मनःस्थितियों के गाँधी के अनगिनत मर्मस्पर्शी-चित्र भरे पड़े है। इनका ‘बापू का महाप्रयाण‘ चित्र मन को छुता है। इन्होंने भगवान बुद्ध, नेपाल महाराज, पंडित नेहरू, जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे, डाॅ.राजेन्द्र प्रसाद, बज्रकिशोर नारायण, मजहरूल हक आदि मनीषियों के लाईफ साईज प्रोट्रेट भी चित्रित किये हैं। पटना, गोवा, भुवनेश्वर एवं दिल्ली जैसे शहरों में इनके चित्रों की प्रदर्शनियाँ लग चुकी हैं । बादल के कुछ महत्वपूर्ण चित्र पटना के ज्ञान भवन में देखे जा सकते है। फरवरी, 2014 से फरवरी, 2017 तक ये बिहार ललित कला अकादमी के अध्यक्ष पद को सुशोभित कर चुके हैं। इन्हें बिहार सरकार का सर्वाधिक प्रतिष्ठित सम्मान ‘‘लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड‘‘ सहित कई अन्य सम्मानों से भी सम्मानित किया जा चुका है। लेकिन अभीतक इन्हें वह ‘‘पद्म सम्मान‘‘ नहीं मिला है, जिसके ये हकदार है। उसकी पीड़ा की झलक इनके चेहरे पर यदा-कदा दिखाई दे जाती है।

बादल की काव्यात्मक अभिव्यक्ति

बादल को लोग चित्रकार के रूप में अधिक जानते है। लेकिन, यह बात काफी कम लोगों को पता है कि कविता-लेखन भी उनकी रचनाधर्मिता की एक सुदृढ़ पहचान है। ये कलम के भी उतने ही धनी है, जितने तूलिका व रंगों के। कविता और कला दोनों के प्रति वह समर्पित हैं। ये कभी शब्दों में अर्थ भरकर आकृति बनाते हैं तो कभी तूलिका में रंग भरकर कोरे कैनवास को जीवन प्रदान करते हैं। बादल का कहना है कि कविता उनके पास बिजली की गति से आती है, वैसे चित्र भी वे मौज में आकर बनाते हैं। यदि वे उसी समय उसे कलमबद्ध नहीं करते तो बिजली की क्षणिक चमक की तरह गायब भी हो जाती है। चित्र बनाने और फिर उसे कविता में ढालने में तो समय लगता ही है। बादल द्वारा लिखी हुई अबतक 8 पुस्तकें प्रकाशित है – मूर्त रंग अमूर्त रेखाएँ, मेरी कला यात्रा, मैं हूँ बादल, मेरे शब्द, मेरे चित्र, मेरे अमूर्त क्षण, श्रद्धांजलि, सिंहावलोकन, प्रभा। चित्रों की तरह उनकी कविताओं का भी विषय है प्रकृति और मानवाीय जीवन। इनकी अधिकांश कविताएँ प्रकृति के साथ-साथ सामान्य मानव की  आकांक्षाओं से जुड़ी हुई है। इनकी कविताओं में शिल्प-सौष्ठव और कवित्व के संकेत मिलते है। कवि का मंतव्य और प्रतिबद्धता कहीं से भी प्रश्नांकित नहीं होती।

“मैं हूँ बादल”: एक कविता

बादल की एक कविता का शीर्षक है – ‘मैं हूँ बादल’। इस कविता में बादल कहते हैं-

मैं बादल हूँ

बिन मांगे बरसात

का जनक।

मुझे पाकर

लहलहाती है फसल

मेरे स्नेह-बूँद से

खिलती हैं

नन्हीं-नन्हीं कलियाँ

मुझे देख सभी इतराते हैं

हर्षाते हैं

केवल काँटे ही

मुरझाते हैं।

काँटे कैसे स्वीकार करेंगे मुझे

जिसे चुभना ही है आता

मैं

किसी के लिए स्याही

किन्हीं की आँखों का

काजल हूँ

मैं बादल हूँ।

98 वर्ष की उम्र में भी निरंतर सृजनरत 

आरंभिक अवस्था की यह रचना यह सिद्ध करने के लिए यथेष्ठ है कि बादल जी जन्मजात कवि भी हैं और इनकी कविता सहजात है, जिसमें स्वाभाविक भावों का काव्य रूप में सहज प्रस्फुटन है।

बादल 97 वर्ष की आयु पूर्ण कर 98में प्रवेश कर चुके हैं। घुंघराले लंबे बाल पूरी तरह सफेद हो चुके हैं। बुढ़ापे से शरीर थोड़ा झुक गया है और चेहरे पर झुर्रियों का जाल बिछा हुआ है। श्रवण शक्ति भी जबाब दे चुकी है। श्रवण यंत्र लगाने के बाद भी बांये कान से कुछ भी सुनाई नहीं देता, दांया कान भी 4-5 प्रतिशत ही काम कर रहा है। किंतु उनमें एक ही निगाह में सभी कुछ देख लेने वाली प्रखर दृष्टि बरकरार है और अंगुलियाँ पहले की तरह स्थिर और मजबूत हैं। भले ही यह बात किसी को अविश्वसनीय लगे, लेकिन यह सच है कि बादल आज भी अपना कैनवास खुद बनाते हैं, फ्रेम बनाते हैं और बीट तक ठोकते हैं। बादल ने अबतक छोटे-बड़े, सादे-रंगीन इन्होंने हजारों चित्र बना डाले हैं। ये 13 लाईफ साईज प्रोट्रेट, 4500 हाफ साईज प्रोट्रेट सहित लगभग 19000 पेंटिंग का निर्माण कर चुके हैं। लगभग साठ हजार आरेखन किए हैं, प्लास्टर आफ पेरिस में 35 मूर्तिशिल्पों का भी निर्माण किया है। इनका सृजन अभी भी रूका नहीं है। इनके लिए काम आज भी अराधना है। 

इधर के दस-बारह वर्षों में एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरा है, जब बादल जी से फोन पर मेरी बात नहीं हुई हो। बात नहीं होने पर लगता है कि कुछ बहुमूल्य खोया हुआ है। इसी सूचना के आत्म-सांस्कृतिक परिवेश में मैंने इनके भीतर के चित्रकार और कवि को पढ़ा है – इनकी जीवित अभिव्यक्ति को। बादल का रचना-संसार विस्तृत और गहरा है। इन्होंने समय का शिलालेख गढ़ा है। इनके चित्र और काव्य में मानवता का आत्मीय संसार रचा-बसा है। अभी भी ये थके नहीं है। भविष्य में बादल अपने रचना-कर्म से अपने ही निर्मित पड़ावों का अतिक्रमण करते हुए नई-नई मंजिलों तक पहुँचेगें, यह उम्मीद और विश्वास है। इनकी जीवन-यात्रा पर यह शेर सटीक बैठता है –

‘‘मेरी जिंदगी इक मुसलसल सफर है

जो मंजिल पै पहुँचा तो मंजिल बढ़ा दी।‘‘

अशोक कुमार सिन्हा

ताज़ा खबरों से अपडेट रहें! हमें फ़ॉलो जरूर करें X (Formerly Twitter), WhatsApp Channel, Telegram, Facebook रियल टाइम अपडेट और हमारे ओरिजिनल कंटेंट पाने के लिए हमें फ़ॉलो करें


बिहार संग्रहालय, पटना में अपर निदेशक के पद पर कार्यरत हैं। इससे पूर्व ये उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान, पटना के निदेशक और बिहार राज्य खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड, पटना के मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी के पद की जिम्मेदारी निभा चुके हैं। बिहार की लोककलाओं एवं हस्तशिल्प के संरक्षण व संवर्द्धन में इनका अमूल्य योगदान रहा है। कला और साहित्य पर अबतक इनकी 38 पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें बटोही, सुन लो हमरी बात (उपन्यास), पिता (खंड-काव्य), बैरी पईसवा हो राम, मवाली की बेटियाँ (कहानी संग्रह), बिहार के पद्मश्री कलाकार (जीवनी), पद्मश्री ब्रह्मदेव राम पंडित-भोरमबाग से भयंदर, (जीवनी) और मन तो पंछी भया (यात्रा संस्मरण) चर्चित हैं। साहित्यिक उपलब्धियों के लिए इन्हें दर्जनों पुरस्कार / सम्मान प्राप्त है, जिनमें विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, गाँधीनगर से सुदीर्घ हिन्दी सेवा सम्मान, नई धारा सम्मान और बिहार सरकार का राजभाषा सम्मान एवं दिनकर कला लेखन सम्मान प्रमुख है।

Leave a Comment