12 जुलाई, 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय चुनावों में ओबीसी आरक्षण को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। अदालत ने बंठिया आयोग की 2022 की रिपोर्ट को निरस्त करते हुए राज्य को 2022 से पूर्व के आरक्षण नियमों पर चुनाव कराने का आदेश दिया। यह फैसला ओबीसी समुदाय के लिए आरक्षण की लंबी लड़ाई में एक नया मोड़ लेकर आया है, जो महाराष्ट्र की राजनीति में तूफान ला दिया है।
महाराष्ट्र के पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री छगन भुजबल ने इस फैसले का स्वागत करते हुए बंठिया आयोग की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े किए। उन्होंने आरोप लगाया कि आयोग ने एसी कमरों में बैठकर अधूरी जाति गणना की, जिससे ओबीसी समुदाय के अधिकारों को नुकसान पहुँचा। यह मामला न केवल कानूनी बल्कि सामाजिक न्याय के लिए भी एक मील का पत्थर साबित हो सकता है, क्योंकि यह देशभर में ओबीसी आरक्षण की नीतियों को प्रभावित करने वाला है।
बंठिया आयोग की स्थापना और विवादों की पृष्ठभूमि
बंठिया आयोग का गठन 2021 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा स्थानीय निकायों में ओबीसी आरक्षण के लिए वैज्ञानिक आँकड़े जुटाने के लिए किया गया था। इसकी अध्यक्षता पूर्व मुख्य सचिव जयराम बंठिया को सौंपी गई, जो 2011 की जनगणना में भी शामिल रह चुके हैं। आयोग का मुख्य कार्य राज्य में ओबीसी समुदाय की वास्तविक जनसंख्या और उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति का अध्ययन करना था ताकि आरक्षण का निर्धारण न्यायसंगत ढंग से हो सके।
हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2021 में एक फैसले में कहा था कि किसी भी राज्य में स्थानीय चुनाव तभी होंगे जब ओबीसी आरक्षण के लिए ‘त्रिसूत्री परीक्षण’ (तीन शर्तें; जनसंख्या आँकड़े, सामाजिक पिछड़ापन, और राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अभाव) पूरा किया जाए। इसके बाद महाराष्ट्र सरकार पर चुनाव कराने के लिए आँकड़े जुटाने का दबाव बना।
बंठिया आयोग को मात्र एक महीने का समय दिया गया, जिसे भुजबल ने अवास्तविक बताया। यह समयसीमा आयोग के काम की गुणवत्ता पर सवाल खड़ा करती है, क्योंकि महाराष्ट्र जैसे विशाल और विविध राज्य में जातिगत आँकड़े जुटाना एक जटिल प्रक्रिया है।
सुप्रीम कोर्ट की चिंताएँ और रिपोर्ट निरस्त होने के कारण
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि बंठिया आयोग की रिपोर्ट वैज्ञानिक दृष्टि से असंतोषजनक है। न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और सीटी रविकुमार की पीठ ने इन मुद्दों को गंभीरता से लिया। अदालत ने माना कि आयोग ने नवीनतम जनगणना या सर्वेक्षण के बजाय चुनावी रोल (मतदाता सूची) पर निर्भर रहा, जो अपूर्ण था। उदाहरण के तौर पर, मतदाता सूची में केवल वयस्कों के नाम शामिल होते हैं, जबकि जनगणना में सभी आयु वर्ग के लोगों का डेटा होता है। इससे ओबीसी समुदाय की वास्तविक जनसंख्या का अनुमान लगाना असंभव था।
साथ ही, ओबीसी समुदाय की शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति का विश्लेषण नहीं किया गया, जो त्रिसूत्री परीक्षण का अहम हिस्सा है। कोर्ट ने यह भी कहा कि रिपोर्ट को अदालत के दबाव में जल्दबाजी में पेश किया गया। यह फैसला 1992 के इंदिरा साहनी केस (मंडल आयोग) से प्रेरित था, जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आरक्षण 50% से अधिक नहीं होना चाहिए और उसे वैज्ञानिक आधार पर तय किया जाना चाहिए। न्यायाधीशों ने स्पष्ट किया कि बिना ठोस आँकड़ों के आरक्षण देना संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और 16 (सरकारी नौकरियों में अवसर की समानता) का उल्लंघन होगा।
भुजबल का आरोप, एसी कमरों में नहीं हो सकती जातिगणना
महाराष्ट्र के मंत्री छगन भुजबल ने बंठिया आयोग की कार्यप्रणाली को कागजी खानापूर्ति करार दिया। उन्होंने बताया कि एक महीने में 1.2 करोड़ परिवारों का सर्वे करना असंभव था, खासकर तब जब आयोग के पास पर्याप्त कर्मचारी और तकनीकी संसाधन नहीं थे। उन्होंने उदाहरण दिया कि गायकवाड़ जैसे सरनेम को सिर्फ मराठा समुदाय से जोड़ दिया गया जबकि यह एससी ओबीसी और माली समुदाय में भी प्रचलित है। भुजबल ने नासिक के सिन्नर तालुका के चार गाँवों में ओबीसी आबादी शून्य दिखाए जाने को भी चुनौती दी।
उनके अनुसार, इन गाँवों में ओबीसी सरपंच मौजूद थे, जो आयोग की रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है। उन्होंने यह भी खुलासा किया कि आयोग ने कई जगहों पर जाति के नामों को गलत तरीके से वर्गीकृत किया, जैसे कुर्मी को कुछ क्षेत्रों में ओबीसी और कुछ में सामान्य वर्ग बता दिया गया। भुजबल ने यह भी आरोप लगाया कि तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने सुप्रीम कोर्ट के दबाव में अधूरी रिपोर्ट स्वीकार की थी।
उन्होंने बताया कि जब उन्होंने रिपोर्ट में त्रुटियाँ उजागर कीं, तो ठाकरे ने जवाब दिया: “अगर रिपोर्ट नहीं दी, तो ओबीसी को शून्य आरक्षण मिलेगा।” यह बयान राज्य की तत्कालीन कांग्रेस-शिवसेना सरकार की विवशता को दर्शाता है।
1931 की जनगणना ओबीसी आरक्षण का आधार क्यों?
छगन भुजबल ने 1931 की जनगणना को ओबीसी आरक्षण का आधार बनाने की माँग की। उनका तर्क है कि 1931 के बाद भारत में जातिगत जनगणना बंद हो गई, और यही आँकड़ा ओबीसी की वास्तविक जनसंख्या को दर्शाता है। उनके अनुसार, 1931 में महाराष्ट्र में ओबीसी आबादी 54% थी, जिसके आधार पर उन्हें 27% आरक्षण मिलना चाहिए। भुजबळ ने बंठिया रिपोर्ट में मुंबई में ओबीसी आबादी महज 6% बताए जाने को हास्यास्पद बताया।
उन्होंने कहा कि मुंबई के रेलवे स्टेशनों पर काम करने वाले मजदूर, यूपी-बिहार से आए यादव-कुर्मी, और स्थानीय मछुआरे समुदाय सभी ओबीसी हैं। उन्होंने सवाल उठाया: क्या मुंबई के धारावी इलाके, जहाँ ओबीसी समुदाय की बड़ी आबादी है, को आयोग ने नजरअंदाज कर दिया? भुजबल ने यह भी याद दिलाया कि 1931 की जनगणना में ब्रिटिश सरकार ने जाति आधारित डेटा एकत्र किया था, जो आज भी सामाजिक न्याय की लड़ाई का आधार है।
हालाँकि, कई विशेषज्ञों का मानना है कि 90 साल पुराने आँकड़े आज की सामाजिक आर्थिक वास्तविकता को नहीं दर्शाते।
मध्य प्रदेश मॉडल क्यों विफल हुआ?
बंठिया आयोग ने मध्य प्रदेश के कृष्णकुमार आयोग की रूपरेखा को अपनाया था, जिसने 2011 में ओबीसी आरक्षण के लिए जातिगत आँकड़े जुटाए थे। हालाँकि, महाराष्ट्र में यह मॉडल दो कारणों से फेल हुआ। पहला, एमपी आयोग को 2 साल मिले, जबकि बंठिया आयोग को सिर्फ 1 महीना दिया गया। दूसरा, भुजबल के अनुसार, तत्कालीन सरकार ने आयोग को पर्याप्त संसाधन नहीं दिए। उदाहरण के लिए, आयोग के पास फील्ड वर्क के लिए केवल 100 टीमें थीं, जबकि महाराष्ट्र के 36
जिलों और 353 तालुकाओं को कवर करने के लिए कम से कम 500 टीमों की आवश्यकता थी। आयोग के भीतर भी मतभेद थे, जहाँ एक सदस्य ने अध्यक्ष जयराम बंठिया पर नौकरशाही दबाव डालने का आरोप लगाया। इस सदस्य ने दावा किया कि आँकड़ों को जानबूझकर तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया, ताकि कुछ जातियों को लाभ मिल सके। यह आरोप राज्य में ओबीसी आरक्षण को लेकर चल रहे राजनीतिक खेल को उजागर करता है।
जाति जनगणना 2025
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2025 में जाति जनगणना की घोषणा की। भुजबल इसे ओबीसी न्याय का अंतिम हथियार मानते हैं। उनका कहना है कि इस जनगणना के बाद ओबीसी की वास्तविक जनसंख्या सामने आएगी और आरक्षण का प्रतिशत वैज्ञानिक आधार पर तय होगा। हालाँकि, यह प्रक्रिया आसान नहीं होगी।
130 करोड़ आबादी का जातिगत सर्वे करने में लॉजिस्टिक चुनौतियाँ हैं, जैसे प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी, डेटा प्राइवेसी का मुद्दा, और कुछ समुदायों का विरोध। कुछ समूहों का मानना है कि यह जनगणना सामाजिक विभाजन को बढ़ाएगी, जबकि भुजबल जैसे नेता मानते हैं कि यही ओबीसी समुदाय को उनका हक दिलाएगी। इस जनगणना का राजनीतिक प्रभाव भी गहरा होगा। 2025 के लोकसभा चुनावों से पहले इसकी घोषणा को कई लोग बीजेपी की ओबीसी वोट बैंक को मजबूत करने की रणनीति मान रहे हैं।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ और ओबीसी समुदाय की आशंकाएँ
पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने भुजबल के आरोपों को राजनीतिक छींटाकशी बताया। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार ने ओबीसी हितों की रक्षा के लिए ही बंठिया रिपोर्ट को स्वीकार किया था। वहीं, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन किया और कहा कि मोदी सरकार की जनगणना ही ओबीसी को न्याय दिलाएगी। ओबीसी संगठनों ने भी प्रतिक्रिया दी है।
महाराष्ट्र ओबीसी महासंघ ने बंठिया आयोग को भंग करने की माँग की है, जबकि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने सुझाव दिया है कि सभी राज्यों को ओबीसी आँकड़े जुटाने के लिए विशेष आयोग बनाने चाहिए। कुछ समाजशास्त्रियों ने चेतावनी दी है कि अगर जाति जनगणना पारदर्शी नहीं हुई, तो यह नए सामाजिक तनावों को जन्म दे सकती है। ओबीसी युवाओं में आक्रोश है कि उनके अधिकारों को व्यवस्थित रूप से नजरअंदाज किया जा रहा है।
कानूनी विश्लेषण; क्या है त्रिसूत्री परीक्षण ?
सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी आरक्षण के लिए तीन शर्तें रखी हैं: जनसंख्या का सटीक आँकड़ा, सामाजिक पिछड़ेपन का विश्लेषण, और राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अभाव। बंठिया आयोग ने केवल पहली शर्त पर ध्यान दिया, जबकि दूसरी और तीसरी शर्तों को नज़रअंदाज़ किया। उदाहरण के लिए, आयोग ने यह नहीं बताया कि ओबीसी समुदाय के लोग शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में कितने प्रतिनिधित्व करते हैं।
इसी कारण अदालत ने रिपोर्ट को खारिज कर दिया। यह फैसला इस बात की याद दिलाता है कि आरक्षण नीतियाँ केवल संख्याओं पर नहीं, बल्कि समग्र सामाजिक न्याय पर आधारित होनी चाहिए। वकीलों का कहना है कि अगर राज्य सरकारें त्रिसूत्री परीक्षण को गंभीरता से नहीं लेंगी, तो भविष्य में भी ऐसे फैसले आते रहेंगे।
राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य, अन्य राज्यों में ओबीसी आरक्षण
महाराष्ट्र की तुलना में अन्य राज्यों ने ओबीसी आरक्षण को लेकर अलग रास्ते अपनाए हैं। मध्य प्रदेश में कृष्णकुमार आयोग की सिफारिशों के आधार पर 27% आरक्षण लागू है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने मान्यता दी है। उत्तर प्रदेश में 2017 में 24% ओबीसी आरक्षण लागू किया गया, लेकिन जनगणना के अभाव में विवाद बना हुआ है। तमिलनाडु ने 1994 में 69% आरक्षण लागू किया, जो सुप्रीम कोर्ट के 50% नियम का उल्लंघन करता है, लेकिन यह संविधान की 9वीं अनुसूची में सुरक्षित है।
बिहार ने हाल ही में जाति आधारित सर्वे कराया है, जिसमें ओबीसी आबादी 63% पाई गई। ये उदाहरण दर्शाते हैं कि ओबीसी आरक्षण का मुद्दा केवल कानूनी नहीं, बल्कि गहरा सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ रखता है। महाराष्ट्र को इन राज्यों के अनुभवों से सीखने की जरूरत है।
भविष्य की राह और ओबीसी न्याय की उम्मीद
सुप्रीम कोर्ट का फैसला और भुजबल की आलोचनाएँ ओबीसी आरक्षण के मुद्दे को एक नए मोड़ पर ले आई हैं। अब नजर 2024 की जाति जनगणना पर टिकी है। यदि यह जनगणना पारदर्शी और वैज्ञानिक ढंग से होती है, तो ओबीसी समुदाय को उनका वाजिब हिस्सा मिल सकेगा। हालाँकि, इस प्रक्रिया में राजनीतिक इच्छाशक्ति और सामाजिक सहमति की आवश्यकता होगी। भुजबल का कहना है कि ओबीसी न्याय की लड़ाई अब अंतिम चरण में है, और यह जनगणना इसका समाधान बन सकती है।
जैसे-जैसे देश इस दिशा में बढ़ेगा, महाराष्ट्र का यह संघर्ष राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन जाएगा। इसके साथ ही, यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि क्या आरक्षण की वर्तमान 50% सीमा को संशोधित करने की आवश्यकता है, जैसा कि तमिलनाडु और बिहार जैसे राज्यों ने माँगा है। अंततः, ओबीसी समुदाय की आकांक्षाएँ सामाजिक न्याय और विकास के केन्द्र में होनी चाहिए।
क्या ओबीसी आरक्षण पर सियासत हावी है?
छगन भुजबल ने बंठिया समिति की रिपोर्ट को लेकर कांग्रेस और उद्धव ठाकरे पर आरोप लगाए कि उन्होंने दबाव में आकर अधूरी रिपोर्ट स्वीकार की, जिससे ओबीसी हितों की अनदेखी हुई। भुजबल के अनुसार, तत्कालीन सरकार चुनाव की जल्दबाजी में थी। हालाँकि, कांग्रेस समर्थकों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के तहत रिपोर्ट को अस्थायी समाधान के रूप में अपनाया गया। विश्लेषकों का मानना है कि भुजबल की आलोचना एकतरफा है और इसके पीछे राजनीतिक मंशा हो सकती है।
भुजबल ने मुंबई के ओबीसी आँकड़ों में यूपी-बिहार के मजदूरों को गिनाने का मुद्दा उठाया, जिससे भाजपा के स्थानीय बनाम बाहरी रणनीति की झलक मिलती है। कांग्रेस के पक्ष में तर्क दिए जाते हैं कि यूपीए सरकार ने ओबीसी के लिए सच्चर समिति और आरक्षण जैसे कई कदम उठाए थे, लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ मतभेदों ने नीति को कमजोर किया।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बीजेपी ओबीसी वोटबैंक मजबूत करने की रणनीति पर है, वहीं कांग्रेस भुजबल पर बीजेपी एजेंडा चलाने का आरोप लगाती है।
अंत में, सवाल यही है, क्या ओबीसी आरक्षण वाकई सामाजिक न्याय का मुद्दा है, या सिर्फ सियासी गणित? जब तक जातिगत आँकड़े पारदर्शी नहीं होंगे, जवाब मिलना मुश्किल है।