प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार की कैबिनेट ने कल अपने पुराने स्टैंड से पलटी मारते हुए राहुल गांधी के मुख्य एजेंडे “जाति जनगणना” को करवाने की घोषणा कर दी।
यह राहुल गांधी के सामने पूरी मोदी सरकार के नतमस्तक हो जाने जैसा है, क्योंकि नरेंद्र मोदी खुद ही घोषणा कर चुके हैं कि “जातिगत जनगणना महापाप है।”
यही नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, नितिन गडकरी, योगी आदित्यनाथ, कंगना रनौत, अनुराग ठाकुर जैसे लोगों के दावों और नारों से उलट, पहलगाम की चीखों की आवाज़ को कम करने के लिए यह निर्णय लिया गया है। यह नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच रस्साकशी का खेल भी है।
यद्यपि जाति जनगणना कब होगी, कैसे होगी, इसका विवरण तो अभी स्पष्ट नहीं है, मगर इतना तय है कि मुसलमानों को भी इसमें “जाति” के आधार पर बांटने की साज़िश की जाएगी।
ध्यान दीजिए कि जबसे राहुल गांधी समेत तमाम विपक्षी दल “जातिगत जनगणना” के लिए आंदोलन कर रहे थे, तब से यही भाजपा और नरेंद्र मोदी के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन्हें हिंदुओं को जाति के आधार पर बांटने का आरोप लगाकर हिंदू विरोधी साबित करने का प्रयास कर रहे थे।
अब वही जाति जनगणना कराकर खुद उन्हें बांटेंगे और हिंदुओं की भलाई करने का दावा करेंगे।
“एक हैं तो सेफ हैं”, “बंटेंगे तो कटेंगे” जैसे नारे हिंदुओं में जाति के आधार पर बंटवारे के विरोध में ही दिए जाते रहे हैं। अर्थात जाति के आधार पर नहीं बंटना है, जाति का बंधन तोड़ कर सिर्फ “हिन्दू” के रूप में एक रहना है और भाजपा को वोट देना है, नहीं तो काटे जाएंगे।
यह नहीं बताया गया कि “काटने वाला” कौन है, यह छिपा लिया गया, मगर उनके वोटर और कैडर समझते थे कि कौन काटेगा। स्पष्ट है कि मुसलमानों से डराया गया है।
दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदू धर्म के लोगों को जहां “एक हैं तो सेफ हैं”, “बंटेंगे तो कटेंगे” के नारे लगाकर एक कर रहे थे, वहीं मुसलमानों को अशराफ, पसमांदा, बोहरा, दाऊदी बोहरा और मुनाफिकों में बांटने का खेल खेल रहे थे, जिसमें कुछ मीर जाफर जैसे लोग उनके साथ थे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, नरेंद्र मोदी और भाजपा का स्पष्ट राजनैतिक स्टैंड है कि अपने वोटर्स और समर्थकों को एकजुट करो, बिखरने मत दो, और विरोधी दल के वोटर्स और समर्थकों को बिखेर दो, जिससे उनका वोट बिखर कर निष्प्रभावी हो जाए।
इसी नीति पर चलकर सबसे पहले दलितों को जाटव और गैर-जाटव में बांटा और दलित राजनीति को खत्म कर दिया। दलितों की सबसे बड़ी नेता मायावती को चुप करा दिया।
इसी नीति पर चलकर भाजपा ने ओबीसी समाज में विभाजन कराया और यादवों से अन्य जातियों को डराया। बेनी प्रसाद वर्मा, मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के समय जो ओबीसी जातियां एक थीं, वे बिखर गईं और भाजपा मजबूत हो गई।
भाजपा ने हरियाणा में जाटों के खिलाफ अन्य जातियों को डराकर जाट बनाम अन्य का नैरेटिव तैयार किया और चुनावी जीत हासिल की। यही रणनीति पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट बनाम 35 अन्य जातियाँ, राजस्थान में जाट बनाम गुर्जर, और मध्यप्रदेश में ओबीसी जातियों के आपसी विभाजन के रूप में दोहराई गई।
यही वह मुसलमानों में करना चाहते हैं। चूंकि मुसलमान उनके विरुद्ध एकजुट होकर एकतरफा वोट करते हैं, इसलिए वे पहले “मुस्लिम महिला”, “हमारी मुस्लिम बहनें” कहते रहे और अब जब वह प्रयास विफल रहा तो पसमांदा, अशराफ, बोहरा और दाऊदी बोहरा का खेल खेलने लगे।
दरअसल यही नरेंद्र मोदी, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनैतिक मूलमंत्र है, “बांटो और राज करो”।
भाजपा की रणनीति साफ रही है, अपने 30-32% वोटर्स को मजबूत बनाओ, उन्हें एकजुट रखो, और विरोधी वोटर्स में जाति, क्षेत्र या समुदाय के आधार पर विभाजन पैदा करो। फिर उन्हीं में से 2-4% को डर, भ्रम या “एक हैं तो सेफ हैं”, “बंटेंगे तो कटेंगे” का लेमनचूस चटाओ और उनके वोट लेकर जीत जाओ।
मगर सवाल यह है कि जब सब सही चल रहा था और इसी पैटर्न पर भाजपा हर जगह जीत रही थी, तब यह “जातिगत जनगणना” पर अचानक फैसला क्यों?
एक तो वही है जो आप समझ रहे हैं, देश में पहलगाम पर हो रही बहस की दिशा बदली जाए, और दूसरा है आने वाले वर्षों में होने वाले चुनाव, जहां जाति आधारित राजनीति ही होती है।
तो इसमें मुसलमानों का क्या?
मुसलमानों में भी यह “जातिगत जनगणना” कराएंगे ही। इनका तो काम ही है हर इस्लामिक सिद्धांत के विरुद्ध काम करना, शरियत में दखल देना।
और चूंकि इस्लाम में जाति के आधार पर विभाजन का कोई विचार नहीं है, तो यह जाति जनगणना कराकर विभाजन कराएंगे और इस्लामी व्यवस्था में छेड़छाड़ करेंगे।
करने दो, इस्लाम में जाति के आधार पर विभाजन नहीं है, मगर वर्ग के आधार पर सामाजिक विभाजन तो वास्तविकता है। यह जाति-जाति कहेंगे, हम वर्ग-वर्ग समझेंगे। चलो, गिनती कर लो।
दरअसल “जाति” शब्द संस्कृत के “जात” से निकला है, जिसका अर्थ है “जन्म” या “उत्पत्ति”। अर्थात जन्म लेते ही उस शिशु का जीवन धार्मिक आदेश से कैसा होगा, यह निर्धारित कर दिया जाता है। इसे ही “जन्मजात” भी कहा जाता है।
इसीलिए स्पष्ट हो जाईए, “जाति” एक धार्मिक शब्द है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों, जैसे मनुस्मृति और वेदों में, जाति का उल्लेख वर्ण और जन्मजात आधारित व्यवस्था के रूप में मिलता है।
वर्ण व्यवस्था के तहत ब्रह्मा के शरीर के अलग-अलग अंगों से जन्म के आधार पर उनका सामाजिक स्तर तय किया गया है। गोस्वामी तुलसीदास की “मानस” में भी इसे लेकर बहुत कुछ कहा गया है।
इस आधार पर “जाति” समूह या “वर्ण व्यवस्था” एक धार्मिक व्यवस्था है, जिसे धर्म द्वारा प्रमाणित और निर्देशित किया जाता है। धार्मिक पुस्तकों में इसे लेकर स्पष्ट निर्देश होता है कि कौन वर्ण मुख से पैदा हुआ और कौन वर्ण पैर से पैदा हुआ, और इसी आधार पर वह क्या है, और उसके क्या सामाजिक अधिकार हैं, क्या कर्म हैं और क्या सामाजिक स्तर है।
फिर यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि “जाति” एक धार्मिक अवधारणा है, जो हिंदू धर्म की धार्मिक व्यवस्था से जुड़ी हुई है, इसका इस्लाम या किसी अन्य धर्म से कोई संबंध नहीं है। यह व्यवस्था केवल सामाजिक नहीं, बल्कि धार्मिक रूप से संरचित है, जिसमें जातियों के लिए नियम, अधिकार, दंड और विशेषाधिकार तय किए गए हैं। इसमें जन्म के आधार पर किसी को धार्मिक रूप से श्रेष्ठ माना जाता है, चाहे वह मुखोजन्मा व्यक्ति नैतिक रूप से कितना भी कुकर्मी क्यों न हो।
कुरान, इस्लाम और मुसलमानों में ऐसा कुछ नहीं है। स्पष्ट है कि हर इंसान अल्लाह की मखलूक है और अल्लाह को वह सभी एक जैसे प्रिय हैं। सब एक ही जगह से, अर्थात मां की कोख से जन्मे हैं और अल्लाह की नज़र में वही इंसान सबसे अव्वल है, जो उसके दीन को पूरी तरह मानता है। वही मुसल्लम ईमान वाला है, वही बेहतर मुसलमान है और अल्लाह की नज़र में वही सबसे सर्वश्रेष्ठ है।
फिर चाहे वह शौचालय साफ करने वाला ज़मादार हो, मोची का काम करता हो, लकड़ी चीरता हो, लोगों के कपड़े धोता हो, या फिर लोगों के बाल बनाता हो, सब्ज़ी बेचता हो या जानवर पालता हो और उसका दूध बेचता हो।
इस्लाम में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह जन्मजात क्या है। फर्क इससे पड़ता है कि वह अपने जीवन में कैसा मुसलमान है? उसका ईमान मुकम्मल है कि नहीं? नहीं है तो वह “कन्फर्म जहन्नमी” है, चाहे अशराफ़ हो या पसमांदा।
यह तो रहा धार्मिक पक्ष, मगर यह भी सच है कि जैसे हर धार्मिक समाज में कुछ लोग सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ जाते हैं, वैसे ही मुस्लिम समाज में भी कुछ लोग पिछड़े हैं। यह हकीकत है।
मगर ऐसा हुआ क्यों? क्या इसकी वजह इस्लामिक है? नहीं। क्या इसकी वजह कुरान है? बिल्कुल नहीं। क्या यह मुसलमानों की आंतरिक सामाजिक संरचना या सोच से निकली है? इसका भी जवाब साफ है, नहीं।
तो फिर कारण क्या है? कारण है मनुवादी लोगों के अत्याचार। भारत में हिंदू धर्म के शोषित समाज ने जब “धर्म परिवर्तन” करके मुसलमान बने तो उन लोगों ने अपने पारंपरिक पेशे को नहीं छोड़ा।
वे मनुवादी लोगों की घृणा और अत्याचार से बचने के लिए, धार्मिक बराबरी के लिए मुसलमान तो बन गए, मुस्लिम समाज के सबसे सशक्त व्यक्ति के कंधे से कंधा मिलाकर मस्जिद में खड़े तो हो गए, एक साथ बैठकर एक दस्तरख्वान पर खाना तो खाने लगे, परन्तु इसके बाद वे अपना परंपरागत दैनिक काम नहीं बदल सके। वही करते रहे जो उनके पुरखे करते आ रहे थे।
हर काम में धन प्राप्त करने की एक सीमा होती ही है और धन की कमी के कारण वही आज मुस्लिम समाज के पिछड़े वर्गों में विभाजित हो गए, आर्थिक और सामाजिक तौर पर कमजोर रह गए। और कमजोर पर जैसे हर जगह जुल्म होता है, शोषण होता है, वैसे ही धनाढ्य और मजबूत वर्ग के मुसलमानों ने उन पर भी किया, उनका भी शोषण किया।
मगर इसका आधार कोई धार्मिक किताब या धार्मिक आदेश नहीं था। ना मुख से पैदा होने के कारण श्रेष्ठता थी, ना पैर से पैदा होने के कारण नीचता थी। यह एक सामाजिक बुराई थी। धार्मिक होती तो शोषण करने वाला मुसलमान, शोषित मुसलमान के साथ कंधे से कंधा मिलाकर दिन में पांच बार सज़दा नहीं करता। शोषण करने वाला उसी शोषित वर्ग को अपना इमाम बनाकर उसके पीछे नमाज़ और तरावीह नहीं पढ़ता।