जाति जनगणना को लेकर मौजूदा केंद्र सरकार का हालिया फैसला न केवल चौंकाने वाला है, बल्कि यह भाजपा और संघ की अब तक की घोषित नीति से बिल्कुल विपरीत भी है। वहीं दूसरी तरफ, राहुल गांधी और कांग्रेस द्वारा सत्ता से निर्वासन के बाद जाति जनगणना के पक्ष में लिया गया रुख भी उतना ही अप्रत्याशित है, जितना कि वर्तमान भाजपा सरकार का जाति जनगणना का फैसला।
जाति जनगणना पर भाजपा और कांग्रेस का रुख राजनीतिक लाभ-हानि का विषय है, जिसकी पुष्टि जाति जनगणना पर उनके लगातार बदलते रुख से होती है।
जाति जनगणना का राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास भाजपा और कांग्रेस दोनों कर रहे हैं, लेकिन यदि जाति जनगणना की शुरुआती पृष्ठभूमि से लेकर अब तक के मुद्दे को जीवंत बनाए रखने का विश्लेषण करें, तो इसका श्रेय मंडल राजनीति से निकले नेताओं को जाता है।
जाति जनगणना, मंडलवादी नेताओं के लिए राजनीतिक विषय न होकर सामाजिक न्याय का विषय रही है, जिसके चलते चार दशकों तक मंडलवादी नेताओं ने इस मुद्दे को सदन से लेकर सड़क तक जीवंत बनाए रखा।
मंडलवादी नेताओं, शरद यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव, को जाति जनगणना की शुरुआती मांग का श्रेय जाता है, लेकिन बदलते राजनीतिक लाभ की अभिलाषा में शरद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार इस मुहिम से दूर होते चले गए।
लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने जाति जनगणना की मुहिम को लगातार मुखरता से उठाया और कालांतर में इस मुहिम को अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव ने जोरदार ढंग से आगे बढ़ाया।
अखिलेश और तेजस्वी के नेतृत्व में जाति गणना की मांग को लेकर पीडीए परिवार की राजनीतिक गोलबंदी ने मौजूदा सरकार को जाति जनगणना के लिए यू-टर्न लेने पर विवश किया है।
जाति जनगणना, मंडलवादी राजनीति और सामाजिक न्याय की पुनर्स्थापना का आधार साबित होगी।
जाति जनगणना भारतीय समाज के लिए एक दोधारी तलवार है। यदि इसका उपयोग सामाजिक न्याय के लिए किया गया, तो भारतीय समाज में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक समता स्थापित होगी। लेकिन यदि जाति जनगणना का उपयोग क्षुद्र राजनीतिक लाभ के लिए किया गया, तो यह जातीय आंकड़े भारतीय समाज को अंतहीन जातीय टकराव में धकेल देंगे, जो देश की एकता और अखंडता के लिए सांप्रदायिक राजनीति से भी ज्यादा घातक साबित होगा।
जातीय अहंकार की आग, जो भारतीय समाज में सदियों से प्रज्वलित है, जाति जनगणना के बाद और अधिक विध्वंसक होने की आशंका है, क्योंकि जाति जनगणना में संख्यात्मक रूप से एक “मास्टर कास्ट” उभर कर सामने आएगी, जिसका टकराव पहले से स्थापित जातीय अहंकार वाली जातियों से होना तय है। साथ ही, जाति जनगणना के आंकड़ों में संख्या बल से अधिक संसाधनों, मसलन नौकरी, व्यवसाय और राजनीति में पैठ जमा चुकी जातियों के खिलाफ अन्य जातियों में विद्वेष और ईर्ष्या का भाव पैदा होगा, जो कालांतर में समाज और देश की अस्थिरता का कारण बन सकते हैं।
जाति जनगणना सामाजिक न्याय के लिए अलादीन के चिराग जैसी है। अब देखना यह है कि भारतीय राजनेता अलादीन के इस चिराग का उपयोग उजाले के लिए करेंगे या फिर समाज में आग लगाने के लिए।