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क्या जाति आज भी भारतीय क्रिकेट की पिच पर खेल रही है?

भारतीय क्रिकेट में जातीय विविधता एक जटिल मुद्दा है। यह लेख बताता है कि कैसे क्रिकेट में जातीय असमानता ऐतिहासिक रूप से रही है और आज भी सुधार की जरूरत है।

भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में क्रिकेट सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि एक जुनून है। यह वह क्षेत्र है जो देश के कोने-कोने से युवाओं को एक पहचान देने का माध्यम बनता है। लेकिन जैसे समाज में जातीय भेदभाव की गूंज सुनाई देती है, वैसे ही क्रिकेट की दुनिया भी इससे अछूती नहीं रही। हालाँकि, समय के साथ इसमें बदलाव हुए हैं, लेकिन यह जरूरी है कि हम भारतीय क्रिकेट में जातीय विविधता को एक समग्र दृष्टिकोण से देखें, अतीत से वर्तमान तक।

ब्रिटिश काल और जातीय भेदभाव की शुरुआत

क्रिकेट भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान आया। शुरू में यह अंग्रेज़ अफसरों और उच्चवर्गीय भारतीयों का खेल माना जाता था। पारसी समुदाय ने 19वीं सदी में क्रिकेट को सबसे पहले अपनाया, फिर मराठा और अन्य समुदाय भी धीरे-धीरे जुड़े। लेकिन इन शुरुआती दौर में क्रिकेट कुलीन वर्गों तक ही सीमित रहा। जाति और वर्ग के आधार पर आम लोगों की इसमें पहुँच बेहद सीमित थी।

1907 में पारसी, हिंदू, मुस्लिम और यूरोपियन टीमों के बीच खेले गए “पेंटैंगलर टूर्नामेंट” जातीय आधार पर बंटी टीमों का प्रतीक था। यह साफ तौर पर दर्शाता है कि क्रिकेट भी तत्कालीन सामाजिक ढांचे से प्रभावित था।

स्वतंत्रता के बाद भारतीय क्रिकेट में जातीय विविधता

1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद क्रिकेट धीरे-धीरे बदलने लगा। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) का प्रभाव बढ़ा और देशभर में क्रिकेट की पहुँच भी फैली। लेकिन फिर भी शुरुआती दशकों में ज्यादातर खिलाड़ी उच्च जातियों और शहरी पृष्ठभूमि से आते थे।

उदाहरण के तौर पर, सुनील गावस्कर, मोहिंदर अमरनाथ, बिशन सिंह बेदी और कपिल देव जैसे खिलाड़ी शहरी, पढ़े-लिखे और अपेक्षाकृत सामाजिक रूप से सशक्त वर्गों से थे। इनमें से कुछ ने दलित या पिछड़े समुदाय से आने वाले खिलाड़ियों के लिए रास्ता भी बनाया, लेकिन संख्या अभी भी कम थी।

जातीय पहचान और खिलाड़ियों की अनदेखी

क्रिकेट में चयन की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं होने के कारण कई बार आरोप लगे कि जातीय और क्षेत्रीय आधार पर भेदभाव हुआ। 1990 के दशक में, यह बहस और तेज हो गई जब कुछ खिलाड़ियों ने खुलकर कहा कि ग्रामीण या निचली जातियों से आने वाले खिलाड़ियों को उतनी आसानी से मौका नहीं मिलता, जितना शहरी या ऊँची जातियों के खिलाड़ियों को।

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बाबा अपराजित, टी. नटराजन, रवि अश्विन जैसे खिलाड़ी तमिलनाडु से हैं, जहाँ जातीय पहचान गहराई से समाज में जुड़ी है। नटराजन विशेष रूप से एक दलित पृष्ठभूमि से आते हैं और उनकी सफलता इस बात का प्रतीक बनी कि कैसे कठिन परिस्थितियों में भी प्रतिभा सामने आ सकती है।

महेंद्र सिंह धोनी: एक सामाजिक बदलाव की मिसाल

महेंद्र सिंह धोनी का भारतीय क्रिकेट में आना एक बड़ा मोड़ था। झारखंड जैसे अपेक्षाकृत पिछड़े राज्य से आकर धोनी ने यह सिद्ध किया कि न तो जाति बाधा है, और न ही क्षेत्र। हालांकि, वे स्वयं जाति पर बात नहीं करते, लेकिन उनके आने के बाद छोटे शहरों और पिछड़े वर्गों से खिलाड़ियों की संख्या में वृद्धि हुई।

उनकी कप्तानी में कई ऐसे खिलाड़ी सामने आए जो पारंपरिक रूप से क्रिकेट से दूर माने जाने वाले इलाकों से थे। उदाहरण के लिए ; रविंद्र जडेजा, उमेश यादव, मोहम्मद शमी, और कुलदीप यादव। इन सभी की पृष्ठभूमि जातीय दृष्टिकोण से विविध रही है।

वर्तमान परिदृश्य: स्थिति बदली, लेकिन असमानता बाकी

आज भारतीय क्रिकेट टीम अधिक समावेशी दिखती है। खिलाड़ियों का चुनाव प्रतिभा के आधार पर अधिक हो रहा है, न कि जाति या वर्ग के आधार पर।

टी. नटराजन की 2020 में ऑस्ट्रेलिया दौरे पर सफलता, एक ऐतिहासिक क्षण था ; एक दिहाड़ी मजदूर का बेटा, एक दलित समुदाय से आकर भारतीय टीम का हिस्सा बना। यह बदलाव की दिशा जरूर है, लेकिन अपवाद को नियम नहीं माना जा सकता।

आज भी घरेलू क्रिकेट में जातीय असमानता की शिकायतें आती हैं। चयनकर्ताओं का पक्षपात, भाषा और उच्च जातीय संपर्कों का प्रभाव अब भी देखा जाता है।

राज्य क्रिकेट संघों में भी ऊँची जातियों के लोगों का वर्चस्व बना हुआ है। यह दिखाता है कि सुधार की गुंजाइश अब भी बाकी है।

सकारात्मक पहल और संभावनाएँ

भारतीय क्रिकेट में सकारात्मक बदलाव भी हुए हैं:

  1. IPL (इंडियन प्रीमियर लीग) के आने से छोटे शहरों और पिछड़े वर्गों के खिलाड़ियों को मंच मिला है।
  2. सोशल मीडिया और डेटा एनालिटिक्स के उपयोग ने चयन प्रक्रिया को थोड़ा और पारदर्शी बनाया है।
  3. कई खिलाड़ी अब खुलकर अपनी पृष्ठभूमि की बात करते हैं, जिससे समाज में जागरूकता फैलती है।
  4. BCCI और राज्य बोर्डों में आरक्षण या प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की मांग धीरे-धीरे उठने लगी है।

महिला क्रिकेट और जातीय विविधता

जहाँ पुरुष क्रिकेट में कुछ बदलाव दिखे हैं, वहीं महिला क्रिकेट में जातीय विविधता की चर्चा कम ही होती है। हरमनप्रीत कौर, झूलन गोस्वामी, पूनम यादव जैसे खिलाड़ी समाज के उन तबकों से आती हैं जहाँ लड़कियों को खेलने की आजादी भी कम होती है। इनका संघर्ष जातीय और लैंगिक दोनों स्तरों पर रहा है।

क्रिकेट को अधिक समावेशी बनाने की राह

अगर भारतीय क्रिकेट को सही मायनों में “जनता का खेल” बनाना है, तो जातीय विविधता को स्वीकार कर उसके लिए स्थान बनाना होगा। इसके लिए कुछ जरूरी कदम हो सकते हैं:

  • ग्रामीण और वंचित वर्गों के लिए क्रिकेट अकादमियों की संख्या बढ़ाई जाए।
  • चयन प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी और डेटा आधारित हो।
  • राज्य क्रिकेट संघों में सामाजिक प्रतिनिधित्व का ध्यान रखा जाए।
  • जातीय पहचान के प्रति संवेदनशीलता और प्रशिक्षण हो।
  • BCCI की नीतियों में सामाजिक समावेश को प्राथमिकता मिले।

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रीतु कुमारी OBC Awaaz की एक उत्साही लेखिका हैं, जिन्होंने अपनी पत्रकारिता की पढ़ाई बीजेएमसी (BJMC), JIMS इंजीनियरिंग मैनेजमेंट एंड टेक्निकल कैंपस ग्रेटर नोएडा से पूरी की है। वे समसामयिक समाचारों पर आधारित कहानियाँ और रिपोर्ट लिखने में विशेष रुचि रखती हैं। सामाजिक मुद्दों को आम लोगों की आवाज़ बनाकर प्रस्तुत करना उनका उद्देश्य है। लेखन के अलावा रीतु को फोटोग्राफी का शौक है, और वे एक अच्छी फोटोग्राफर बनने का सपना भी देखती है। रीतु अपने कैमरे के ज़रिए समाज के अनदेखे पहलुओं को उजागर करना चाहती है।

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