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जातिवार जनगणना का निर्णय विपक्ष को निहत्था करने की रणनीति

भाजपा ने बिहार चुनाव में विपक्ष को जवाब देने के लिए जातिवार जनगणना का ऐलान किया। युद्ध की बजाय फिलहाल शीतयुद्ध जारी रहेगा, जहां सारा ध्यान चुनावी जीत पर है।

जहाँ सभी अंदाजा लगा रहे थे कि मोदी सरकार पाकिस्तान बॉर्डर पर सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कोई बड़ी कार्रवाई करने वाली है, लेकिन उसकी जगह आ गया ‘जातिवार जनगणना कराने का फैसला।’ बहुतों को आश्चर्य है कि मोदी और संघ परिवार इसके लिए कैसे राजी हो गए। कुछ लोगों का मानना है कि यह फैसला संघ को खास पसंद नहीं आया, फिर भी मोदी सरकार ने यह कदम उठाया।

दरअसल, संघ और उसके विभिन्न मोर्चों के रिश्तों को लेकर कभी-कभार टकराव जैसा दिखता तो है, लेकिन वास्तविकता यह है कि डोमिनेट तो संघ ही करता है और उसकी रजामंदी से ही सब कुछ चलता है। यह फैसला भी संघ की रजामंदी से ही लिया गया लगता है। एक बड़ी राजनीतिक हैसियत और लोकप्रियता हासिल कर लेने के बावजूद मोदी संघ के सामने नतमस्तक हैं और एक बयान में उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा भी कि भाजपा संघ के एजेंडे को ही पूरा करती रही है। इसलिए यह मानकर चलिए कि यह संघ समर्थित फैसला है।

अब सवाल उठता है कि आरक्षण का विरोध करने वाली, जातिवार जनगणना का विरोध करने वाला संघ और भाजपा ने अचानक यह यू टर्न क्यों ले लिया?

इसकी तत्कालीन वजह यही थी कि बिहार में चुनाव होने वाले थे और तेजस्वी यादव व कांग्रेस ने इसे एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बना रखा था। तमाम जनसभाओं में विपक्ष इस मुद्दे को लेकर लगातार रणघोष करता रहता था। बिहार की पूरी राजनीति इसी मुद्दे के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गई थी। ऐसे में भाजपा और संघ परिवार ने जातिवार जनगणना कराने का ऐलान कर उस राजनीति की हवा निकाल दी।

हां, इसे विपक्ष अपनी नैतिक जीत बता कर वाहवाही लूटने की कोशिश कर सकता है। लेकिन क्या चुनाव में मजबूती से उतरने के लिए इतना काफी होगा?

इसे इस नजरिए से भी देखा जाना चाहिए कि भाजपा के लिए हर मुद्दा सत्ता में बने रहने और चुनावी संघर्ष में जीत हासिल करने का एक उपक्रम है। धार्मिक उन्माद के आधार पर हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण तो उसका सतत चलने वाला अभियान है, लेकिन साथ ही ऐसे मुद्दों का भी वह अपने हिसाब से उपयोग करती है। पहलगाम वाला मामला थोड़ा बेढ़ब था; उसमें भाजपा, शोर-शराबा करने के बावजूद, धीरे-धीरे आत्मरक्षात्मक मुद्रा में जाती रही। इसलिए युद्ध का नगाड़ा बजाया जा रहा था।

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लेकिन युद्ध क्या इतना आसान है? सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कोई कार्रवाई तो की जा सकती है, लेकिन असली युद्ध शुरू होते ही सारे समीकरण बदल सकते हैं। चीन का रुख क्या रहेगा, अमेरिका कितनी दूर तक साथ देगा, इस पर भरोसा करना मुश्किल है। गाल बजाना और गर्जना-तर्जना करना आसान होता है, लेकिन युद्ध का फैसला लेना इतना सरल नहीं होता।

इसलिए जातिवार जनगणना की घोषणा कर सारा नैरेटिव ही बदल दिया गया।

इसका मतलब यह भी नहीं है कि युद्ध भाजपा के एजेंडे में नहीं है। वह है, और अगर चुनावी जीत के लिए यह जरूरी हुआ, तो भाजपा उसे भी करेगी। लेकिन फिलहाल शीतयुद्ध ही चलता रहेगा।

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अनमोल प्रताप OBC Awaaz के लेखक हैं, जो मुख्य रूप से राजनीतिक समाचार, नीतियों और जनसरोकार से जुड़े विषयों पर लेखन करते हैं। उनकी लेखनी स्पष्ट, तथ्यात्मक और जनपक्षधर दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है।

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