लोकतंत्र में अन्याय के विरुद्ध शांतिपूर्ण ढंग से विरोध दर्ज कराना प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है, चाहे वह करणी सेना के ओकेंद्र राणा हों या इंडियन रिफॉर्मर्स ऑर्गनाइजेशन के संस्थापक गगन यादव।
लेकिन यदि यह अधिकार जाति देखकर लागू किया जाए, तो यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि वर्ण-आधारित शासन व्यवस्था बन जाती है।
राणा सांगा प्रकरण में दलित सांसद रामजीलाल सुमन द्वारा संसद में दिए गए एक बयान को लेकर जिस तरह कुछ जाति विशेष के लोगों ने खुलेआम सांसद और उनके आवास को निशाना बनाया, और सत्ता-प्रशासन ने मौन स्वीकृति दी, यह पूरे देश ने देखा है!
वहीं, इटावा की घटना में जब एक यादव समाज के कथावाचक को केवल जाति के कारण न सिर्फ़ कथा से रोका गया, बल्कि उनके बाल काटे गए, नाक रगड़वाई गई, और कथित रूप से ब्राह्मणी मूत्र से शुद्धिकरण किया गया, यह केवल अमानवीय नहीं, बल्कि भारतीय संविधान और मानव गरिमा का खुला अपमान है!
हम गगन यादव के कुछ विचारों और बयानों से असहमत हो सकते हैं, पर जब उन्होंने शांतिपूर्ण ढंग से अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई, तो उन्हें आगरा से गिरफ्तार कर लिया गया, यह प्रश्न खड़ा करता है:
- क्या शांतिपूर्ण आंदोलन का अधिकार भी अब जाति देखकर मिलेगा?
- क्या ब्राह्मण और राजपूत संगठनों को संविधान से ऊपर मान लिया गया है?
- जब वे खुलकर हिंसक विरोध करते हैं, तो उन पर कार्यवाही क्यों नहीं होती?
भारत का संविधान हर नागरिक को समान अधिकार देता है, लेकिन प्रशासन की कार्यशैली यह दर्शाती है कि न्याय और कानून का व्यवहार जाति देखकर तय किया जा रहा है।
हमें संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों की रक्षा के लिए आवाज़ उठानी चाहिए। न्याय सबके लिए एक समान हो, न कि जाति और धर्म देखकर शासन सत्ता में बैठे मनुवादी मानसिकता के लोगों द्वारा न्याय को परिभाषित किया जाए।