दरअसल, डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद नरेंद्र मोदी की 56 इंच की छवि टूटकर ज़मीन पर गिर गई है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने शपथ लेते ही अप्रवासी भारतीयों को हथकड़ियां और पैरों में बेड़ियां बांधकर आतंकवादियों की तरह भारत भेजा, और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके खिलाफ चूं तक नहीं कर सके। यहां तक कि जब नरेंद्र मोदी अमेरिका में थे, तब भी दूसरी बार ऐसा ही हुआ।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने व्हाइट हाउस में नरेंद्र मोदी के सामने भारत को उल्टा-सीधा कहा और नरेंद्र मोदी चुपचाप सुनते रहे। हर दिन डोनाल्ड ट्रंप भारत को लेकर उल्टा-सीधा बयान दे रहे हैं और नरेंद्र मोदी चुपचाप सुन रहे हैं, यह देश की जनता देख और सुन रही है।
यह अमेरिका से भारत के संबंध खराब होने का प्रतीक है।
दरअसल, हकीकत यह है कि हमने अपने सबसे विश्वसनीय दोस्त, कनाडा, रूस, श्रीलंका, ईरान, नेपाल और बांग्लादेश तक को खो दिया है।
भारत G7 का सदस्य नहीं है, मगर सालों से उसे विशेष रूप से G7 में आमंत्रित किया जाता रहा है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसमें शामिल होते रहे हैं। इस बार G7 की बैठक कनाडा में हो रही है और खबर है कि कनाडा ने भारत को आमंत्रित ही नहीं किया है।
कनाडा: जिसने परमाणु का ‘प’ सिखाया
कनाडा वह देश रहा है जिसने 1956 में सबसे पहले भारत को परमाणु तकनीक दी और CIRUS (Canada India Reactor Utility Services) रिएक्टर प्रदान किया, जो Atoms for Peace प्रोग्राम के तहत था।
इसे ही भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (BARC), ट्रॉम्बे में स्थापित किया गया और यह 1960 में चालू हुआ।
1960 के दशक में कनाडा ने भारत की राजस्थान परमाणु ऊर्जा परियोजना (RAPP) के लिए दो CANDU (Canada Deuterium Uranium) रिएक्टरों की आपूर्ति के लिए समझौते किए। पहला रिएक्टर RAPP-1, 1972 में चालू हुआ, जो बाद में 1974 में भारत के पहले परमाणु परीक्षण का आधार बना। कहने का अर्थ यह है कि भारत को परमाणु का “प” सिखाने वाला देश कनाडा था।
हमने देश की अंदरूनी राजनीति के लिए उससे संबंध खराब कर लिए। आज वह भारत के सबसे बड़े विरोधी देशों में है।
रूस: जो युद्ध में साथ खड़ा रहा
रूस और भारत की दोस्ती तो ऐतिहासिक और पारंपरिक रही है। 1971 में भारत और सोवियत संघ के बीच “मैत्री और सहयोग संधि” (Treaty of Peace, Friendship and Cooperation) पर हस्ताक्षर हुए। इसके तहत सोवियत संघ ने भारत को सैन्य उपकरण, हथियार और गोला-बारूद की आपूर्ति की। इस संधि ने 1972 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान एक मजबूत सामरिक समर्थन प्रदान किया।
1971 के युद्ध में जब अमेरिका का सातवां बेड़ा भारत के विरुद्ध बंगाल की खाड़ी में आकर खड़ा हो गया था, तब सोवियत संघ ही था जिसने अपनी नौसेना को हिंद महासागर में तैनात किया और अमेरिकी बेड़े पर दबाव बनाया, जिससे वह कुछ कर नहीं सका।
1974 में भारत के पहले परमाणु परीक्षण के बाद, जब कनाडा ने समझौते के उल्लंघन के आधार पर सहयोग बंद कर दिया, तब सोवियत संघ भारत के साथ खड़ा रहा। उसने भारत की परमाणु नीति को लेकर कोई कठोर रुख नहीं अपनाया, जो उस समय भारत के लिए महत्वपूर्ण था।
और जब उसी रूस को यूक्रेन युद्ध में भारत की जरूरत पड़ी, तब आप वहां जाकर उसे उपदेश दे रहे हैं कि “युद्ध नहीं, बुद्ध की नीति उचित है”। हर जगह तुकबंदी? सिर्फ तुकबंदी।
इसीलिए पहलगाम आतंकवादी हमले के बाद रूस जैसा दोस्त भारत के समर्थन में खड़ा नहीं हुआ।
बांग्लादेश: जो अब चीन के साथ है
बांग्लादेश भारत का सबसे विश्वसनीय मित्र था। 1972 के युद्ध के बाद दोनों देशों में समझौता हुआ था कि वे एक-दूसरे की संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करेंगे और किसी सैन्य गठबंधन में एक-दूसरे के विरुद्ध शामिल नहीं होंगे।
यह समझौता था कि यदि किसी एक पक्ष पर हमला हो या खतरा हो, तो दोनों पक्ष तुरंत परामर्श करेंगे और खतरे को खत्म करने के उपाय करेंगे। यह संधि 25 वर्षों के लिए थी और आपसी सहमति से बढ़ाई जाती रही।
भारत की अंदरूनी चुनावी राजनीति के कारण बांग्लादेश से संबंध खराब कर लिए गए। अब वह भारत की सबसे संवेदनशील चिकन नेक क्षेत्र के खिलाफ चीन के साथ मिलकर काम कर रहा है।
श्रीलंका: जहाँ हमने सैनिक गँवाए, पर अब चीन का वर्चस्व
अब श्रीलंका पर आते हैं। श्रीलंका भारत का पारंपरिक और सांस्कृतिक दोस्त था। जब वहां गृहयुद्ध चल रहा था, तब 1987 में उसकी सरकार की मदद के लिए ऑपरेशन पवन के तहत शांति सेना भेजी गई, जिसमें करीब 1200 भारतीय सैनिक शहीद हुए।
आज श्रीलंका चीन के साथ खड़ा है। 2017 में श्रीलंका ने चीन को हंबनटोटा बंदरगाह और उसके आसपास की 15,000 एकड़ ज़मीन पोर्ट सिटी प्रोजेक्ट के लिए 99 साल की लीज़ पर दे दी।
मतलब, चीन अब भारत के दक्षिण में आकर भी बैठ गया है, और हम तमाशा देखते रहे, देश और प्रदेश के चुनाव जीतने में लगे रहे।
नेपाल और ईरान भी दूर हो गए
नेपाल भी एक उदाहरण है, अब वह भारत से लगभग दुश्मन जैसा व्यवहार कर रहा है और चीन का मित्र बन चुका है।
ईरान से भी, अमेरिका के चक्कर में, संबंध सुखद नहीं रहे। भारत के मित्र देश अब चीन के दोस्त हो गए हैं।
11 साल, 150 यात्राएं, और परिणाम?
11 सालों में 150 से अधिक विदेश यात्राएं और 75 देशों की यात्रा करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह हासिल किया है। वहां की गई बकलोलबाज़ी का नतीजा है कि आज भारत के साथ कोई देश नहीं खड़ा है। पारंपरिक दोस्त किनारा कर चुके हैं, और माय फ्रेंड डोनाल्ड ट्रंप रोज़ भारत के खिलाफ बयान दे रहे हैं।
डॉ. मनमोहन सिंह ने बिल्कुल सही कहा था:
ज़बरदस्ती के गले लगने से विदेश नीति नहीं बनायी जाती है।
दरअसल, प्रधानमंत्री ने विदेश में जाकर सिर्फ अपनी ब्रांडिंग की है—”इंडियन डायस्पोरा” को स्टेडियम में बुलाकर लंतरानी की है, कुछ तो फ़कीरी है आपमें कहलवाया है, और कुछ नहीं।
ज़रा सोचिए… कि हम दुनिया में कहां हैं? कौन हमारे साथ है?