घर में अगर किसी की मृत्यु हो जाती है, तो परिवार के सभी पूर्व निर्धारित काम स्थगित हो जाते हैं, यही हमारी सामाजिक और मानवीय परंपरा है। लेकिन जब एक देश में एक नहीं, दो नहीं, बल्कि 28 लोगों की जान चली जाती है, और तब भी देश का मुखिया बिहार में एक रैली में लोगों की तालियों के बीच हंसी-ठिठोली करता दिखाई देता है, तो यह केवल असंवेदनशीलता नहीं, बल्कि जनता की पीड़ा के प्रति उपेक्षा का स्पष्ट संकेत है। कुछ मृतकों की चिताएं अभी ठंडी भी नहीं हुई थीं, कुछ की तो सजाई भी नहीं गई थीं, और वहीं देश का नेतृत्व तालियों की गूंज में आत्ममुग्ध होकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था।
यह सब तो बाद में भी किया जा सकता था, चार दिन बाद भी। यह कोई राजनीतिक विरोध नहीं है, बल्कि एक गहरा मानवीय सवाल है। आखिर क्या इन 28 परिवारों का दुख इतना छोटा था कि उन्हें ढांढस बंधाने की भी जरूरत महसूस नहीं हुई? अगर पीड़ित परिवारों से मिलकर उनकी आंखों से आंसू पोंछे जाते, विधवा बहनों को सहारा और भरोसा दिलाया जाता कि सरकार उनके साथ खड़ी है, तो यह एक सशक्त और संवेदनशील संदेश होता। लेकिन अफसोस, ऐसा कुछ भी नहीं किया गया।
दरअसल, यह पूरी घटना इस बात का प्रमाण है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की प्राथमिकताएं क्या हैं, इंसानी जान नहीं, बल्कि चुनावी मंच और तालियों की गूंज ज़्यादा अहम है। यह संवेदनहीनता केवल शब्दों तक सीमित नहीं है, यह एक सोच है, जिसमें जनता की पीड़ा, जीवन और मृत्यु को सिर्फ आंकड़ों में बदलकर भुला दिया जाता है।
बात प्राथमिकता की है, सांप 28 लोगों को डसकर चला गया, उनके घरों को उजाड़ गया, अब लकीर पर लाठी पीटते रहिए।