देश के विभाजन के समय, देश की 565 रियासतों में से 562 रियासतें स्वतंत्र भारत में विलीन हो गईं, मगर तीन रियासतों, जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर ने भारत में विलय से इनकार कर दिया और स्वतंत्र रहने का फैसला किया।
यह उनका अधिकार था क्योंकि भारत के अंतिम ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने देश की स्वतंत्रता को लेकर यही नियम भारत और पाकिस्तान के बीच तय कराया था।
भारत की स्वतंत्रता के समय, 15 अगस्त 1947 को, भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 (Indian Independence Act, 1947) के तहत भारत और पाकिस्तान के रूप में दो स्वतंत्र डोमिनियन बनाए गए और यही लिखित रूप में भारत का बंटवारा था।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947, 5 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद में पारित हुआ और 18 जुलाई 1947 को शाही स्वीकृति (Royal Assent) प्राप्त हुई।
इस अधिनियम में भारतीय रियासतों के संबंध में कुछ विशेष प्रावधान बनाए गए, जो इन 565 रियासतों की संप्रभुता की रक्षा के लिए थे:
- इस अधिनियम के तहत ब्रिटिश क्राउन की सर्वोपरिता समाप्त कर दी गई, जिसका अर्थ था कि रियासतें अब ब्रिटिश सरकार के अधीन नहीं थीं।
- रियासतों को स्वतंत्रता दी गई कि वे भारत या पाकिस्तान में से किसी एक डोमिनियन में शामिल होने का निर्णय ले सकती थीं, या स्वतंत्र रहने का विकल्प चुन सकती थीं।
- रियासतों को इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन (Instrument of Accession) के माध्यम से भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का अधिकार दिया गया। इस दस्तावेज़ के तहत रियासतें अपनी संप्रभुता का कुछ हिस्सा, मुख्य रूप से रक्षा, विदेश मामले और संचार, नए डोमिनियन को सौंप देती थीं।
इस तीसरे बिंदु के तहत रियासतों को अपनी आंतरिक स्वायत्तता बनाए रखने का अधिकार था, यानी वे अपनी शासन व्यवस्था, कानून और प्रशासन को नियंत्रित कर सकती थीं, बशर्ते वे विलय पत्र पर हस्ताक्षर करें।
भारत और पाकिस्तान दोनों ने रियासतों पर दबाव डाला कि वे किसी एक डोमिनियन में शामिल हों, जबकि भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में यह स्पष्ट था कि रियासतों को दबाव या जबरदस्ती किसी डोमिनियन में शामिल नहीं किया जाएगा।
तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल और वी.पी. मेनन के नेतृत्व में, भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के बावजूद रियासतों को भारत में विलय के लिए दबाव की रणनीति अपनाई गई और 562 रियासतों का भारत में विलय भी करा लिया गया।
मगर इस सबके बावजूद, तीन रियासतों, जूनागढ़, कश्मीर और हैदराबाद, ने भारत में विलय से इनकार कर दिया। इनमें से दो रियासतें, जूनागढ़ और हैदराबाद, मुसलमानों की थीं और कश्मीर की रियासत हिंदू की थी।
हैदराबाद में निज़ाम के इस निर्णय के खिलाफ दंगे-फसाद शुरू हुए और भारत सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के विरुद्ध जाकर वहां ऑपरेशन पोलो किया, जिसमें लाखों लोग मारे गए।
देश में ब्रिटिश हुकूमत समाप्त होने के एक साल बाद ही, भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के विरुद्ध जाकर, एक स्वतंत्र रियासत हैदराबाद के खिलाफ ऑपरेशन पोलो 13 सितंबर 1948 को शुरू हुआ और 18 सितंबर 1948 को समाप्त हुआ।
ध्यान दीजिए कि 85% हिंदू जनता वाली हैदराबाद रियासत, निज़ाम मीर उस्मान अली खान के शासन में, भारत की सबसे धनी और शक्तिशाली रियासतों में से एक थी। यह दक्कन के पठार पर स्थित थी और इसका क्षेत्रफल वर्तमान में तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक के एक बड़े हिस्से तक फैला था।
मगर वहां की 85% हिंदू जनता भारत के साथ जाना चाहती थी। उस विद्रोह को दबाने के लिए, निज़ाम की फौज, मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (MIM) के नेता कासिम रज़वी के नेतृत्व में रजाकार नामक एक निजी मिलिशिया ने हिंदू आबादी पर अत्याचार किए, भारत के पक्ष में उठी आवाज़ को दबाने के लिए ज़ुल्म किए। जिसके कारण सरदार पटेल ने हैदराबाद रियासत में ऑपरेशन पोलो किया।
निज़ाम मीर उस्मान अली खान ने संयुक्त राष्ट्र में भी अपनी रियासत की स्वतंत्रता का मामला उठाया और ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में एक स्वतंत्र संवैधानिक राजशाही के रूप में हैदराबाद को स्थापित करने की कोशिश की, मगर अंततः भारत में विलय को तैयार हो गए।
दूसरी रियासत थी जूनागढ़। यहां भी बहुसंख्यक जनता हिंदू थी और रियासत के नवाब मुहम्मद महाबत खान तृतीय थे। उनकी शासन अवधि के दौरान, जूनागढ़ रियासत ने स्वतंत्रता अधिनियम 1947 से मिले अपने अधिकार का उपयोग करते हुए पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय लिया, जबकि रियासत की अधिकांश हिंदू आबादी भारत में विलय चाहती थी।
इस विवाद के परिणामस्वरूप, भारत ने 1947 में सैन्य हस्तक्षेप ऑपरेशन जूनागढ़ के माध्यम से जूनागढ़ को भारतीय संघ में शामिल कर लिया।
यह दोनों कार्रवाइयाँ भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के विरुद्ध थीं, मगर भारत के पक्ष में थीं, इसलिए किसी को यह संधि-विरुद्ध या अनैतिक नहीं लगी कि साल भर पहले हुए समझौते को तोड़कर भारत ने सैन्य अभियान चलाकर हैदराबाद और जूनागढ़ रियासतों का जबरन विलय करा लिया। सभी ने खुशी-खुशी स्वीकार भी कर लिया, और केवल इसी कारण सरदार पटेल को लौह पुरुष मान लिया गया।
भारत में विलय से इनकार करने वाली तीसरी रियासत थी कश्मीर, जहां की जनता मुस्लिम थी, मगर कश्मीर के राजा हरि सिंह हिंदू थे। हिंदू होते हुए भी राजा हरि सिंह भारत में विलय के पक्ष में न होकर स्वतंत्र कश्मीर के पक्षधर थे और कश्मीर को स्विट्ज़रलैंड की तरह विकसित करना चाहते थे।
मगर वहां की मुस्लिम बहुल आबादी जूनागढ़ और हैदराबाद की तरह अपने राजा के निर्णय के खिलाफ नहीं होकर उनके साथ खड़ी थी। अगर पाकिस्तान के नेतृत्व में कबीलाई लोगों ने आक्रमण न किया होता तो संभव था कि कश्मीर आज एक स्वतंत्र देश होता।
मगर कबीलाई आक्रमण के कारण घबराए राजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी। भारत ने उन्हें विलय का प्रस्ताव दिया और राजा हरि सिंह ने उसी भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के खंड 3, इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन (Instrument of Accession) के तहत भारत में विलय स्वीकार कर लिया, जिसके तहत रियासतें अपनी संप्रभुता का कुछ हिस्सा, मुख्य रूप से रक्षा, विदेशी मामले और संचार, नए डोमिनियन को सौंप देती थीं। मुख्यतः यही धारा-370 थी।
यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि कश्मीर के भारत में विलय के बाद तीन वर्षों तक जीवित रहने के बावजूद भी सरदार पटेल कश्मीर के पूर्ण विलय के लिए न तो ऑपरेशन पोलो कर सके, न ऑपरेशन जूनागढ़ जैसा कोई सैन्य अभियान चला सके।
मगर कश्मीर की गलती जवाहरलाल नेहरू की बताई जाती है और हैदराबाद व जूनागढ़ में सैन्य अभियान के कारण सरदार पटेल लौह पुरुष कहलाए।
हकीकत यह है कि यह तत्कालीन प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल, दोनों के संयुक्त प्रयास से भारत को यह कूटनीतिक जीत मिली, जिसने उस समय की महाशक्ति इंग्लैंड की संसद में पारित कानून के खिलाफ जाकर देश की सभी रियासतों को भारत में मिला लिया।
लोगों की सोच बस इतनी ही है, वे जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल को अलग-अलग देखते हैं। जबकि जवाहरलाल नेहरू की सहमति के बिना उनके अधीनस्थ सरदार पटेल कुछ कर सकते थे? दोनों के संबंधों को देखें तो यह असंभव था।
दोनों किसी भी विषय पर सहमति और असहमति के साथ चर्चा करते थे। तब ऐसा ही होता था, यह सामान्य बात थी। मगर असहमति होने पर ना किसी को देशद्रोही कहा जाता था, ना उसे जेल में डाला जाता था।
बाकी, स्वतंत्रता अधिनियम 1947 केवल भारत और पाकिस्तान के बीच एक लकीर मात्र बनकर रह गया, और इस अधिनियम से रियासतों को मिले तमाम अधिकार जबरन छीन लिए गए।