1979 से पहले ईरान और इज़राइल घनिष्ठ संबंध थे। यह दौर शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी के शासनकाल का था। ईरान, तुर्की के बाद दूसरा मुस्लिम देश और मिडिल ईस्ट में पहला ऐसा देश था जिसने 1950 में इज़राइल को मान्यता दी थी।
सिर्फ मान्यता ही नहीं, दोनों देशों के बीच तेल व्यापार, सैन्य सहयोग और खुफ़िया जानकारी का आदान-प्रदान भी होता था। विशेष रूप से ईरान की ख़ुफ़िया एजेंसी सावाक और इज़राइल की एजेंसी मोसाद के बीच भी घनिष्ठ संबंध थे।
उसी दौर में जब यूरोपीय देशों ने फिलिस्तीन में यहूदियों को बसाना शुरू किया, तब खाड़ी के देश, जैसे सऊदी अरब, कुवैत, कतर, बहरीन, ओमान और संयुक्त अरब अमीरात ने अरब नेता हज अमीन अल-हुसैनी के नेतृत्व में इसका कड़ा विरोध किया था।
यहूदियों को फिलिस्तीन में बसने से रोकने के प्रयास में हज अमीन अल-हुसैनी ने 1941 में बर्लिन जाकर हिटलर से भी मुलाकात की। वे ब्रिटिश शासन और यहूदी प्रवास (पांचवीं आलिया) के प्रबल विरोधी थे।
उस समय अमेरिका–इज़राइल–ईरान की तिकड़ी बेहद प्रभावशाली मानी जाती थी। ईरान ने खुले तौर पर इज़राइल का समर्थन किया और उसके समर्थन ने अरब देशों के विरोध को कमज़ोर कर दिया।
अमेरिका और ईरान की मदद से इज़राइल मज़बूत होता गया और उसने 1948, 1967 (सिक्स-डे वॉर), और 1973 (योम किप्पुर युद्ध) में अरब देशों से युद्ध लड़ा। इन युद्धों के दौरान भी ईरान ने इज़राइल का पर्दे के पीछे से साथ दिया, और मोसाद–सावाक की साझेदारी गहरी होती गई।
इसीलिए आज भी मोसाद ईरान में गहराई तक सक्रिय है, और पिन-पॉइंट हमले करने में सक्षम है।
1979 की इस्लामी क्रांति के बाद ईरान–इज़राइल संबंधों में बड़ा बदलाव आया। अयातुल्लाह ख़ुमैनी ने सत्ता संभाली और इज़राइल को ग़ैर-कानूनी करार देते हुए फिलिस्तीन के समर्थन में विदेश नीति बदल दी। 7 अप्रैल 1980 को दोनों देशों के बीच औपचारिक राजनयिक संबंध समाप्त हो गए।
अगर उस दौर में ईरान अरब देशों और हज अमीन अल-हुसैनी के साथ खड़ा हो गया होता, तो आज इज़राइल की स्थिति शायद अलग होती। मगर यह विडंबना है कि आज वही देश ईरान का साथ दे रहे हैं, जिनसे वह कभी दूर था।