न्याय का तक़ाजा है कि हर गुनाह की सुनवाई हो। लेकिन अगर खुद न्याय की कुर्सी पर बैठा शख़्स सवालों के घेरे में हो, तो फिर फैसले कौन देगा? जस्टिस वर्मा कांड महज़ एक घटना नहीं, बल्कि एक गंभीर खतरे की घंटी है—क्या हमारे देश में कुछ लोग कानून से ऊपर हैं?
मामला छोटा नहीं, सवाल बड़े हैं
दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस वर्मा के सरकारी बंगले में आग लगती है। जब दमकल विभाग राहत कार्य करता है, तो वहां से जो बरामद होता है, वह किसी भी लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है—छुपाकर रखी गई मोटी रकम। ये पैसा कहां से आया? क्यों छुपाया गया था? और सबसे बड़ा सवाल—क्या हमें इस पर चुप रहना चाहिए?
जांच शुरू हुई, जस्टिस वर्मा को काम से अलग कर दिया गया। लेकिन क्या बस इतना काफ़ी है? अगर कोई आम आदमी होता, तो क्या इतनी नरमी दिखाई जाती?
न्यायपालिका पर उंगली क्यों नहीं उठती?
अगर कोई मंत्री घोटाला करता है, तो जांच होती है। अगर कोई अफसर रिश्वत लेता है, तो कार्रवाई होती है। लेकिन जब जज पर सवाल उठते हैं, तो पूरा सिस्टम चुप क्यों हो जाता है?
क्या न्यायपालिका को कानून से ऊपर रखा गया है? क्या इसका मतलब ये है कि कोई भी जज चाहे जो करे, लेकिन जनता सवाल न पूछे? अगर जवाबदेही लोकतंत्र की बुनियाद है, तो जज इस दायरे से बाहर क्यों?
सवाल दबाने से नहीं, हल ढूंढने से हल होंगे
यह पहला मामला नहीं है, जब किसी जज पर संदेह की सुई घूमी हो। फर्क बस इतना है कि ज्यादातर मामलों में या तो रिटायरमेंट के बाद सच्चाई सामने आती है, या फिर पर्दे के पीछे खेल खत्म कर दिया जाता है।
लेकिन कब तक? न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मतलब ये नहीं कि वो किसी के प्रति जवाबदेह ही न हो! आज अगर हम सवाल नहीं पूछेंगे, तो कल इस सिस्टम पर कोई भरोसा नहीं करेगा।
न्यायपालिका के लिए भी ‘लोकपाल’ क्यों नहीं?
नेताओं की जांच के लिए लोकपाल है। सरकारी अफसरों की निगरानी के लिए विजिलेंस विभाग है। तो फिर न्यायपालिका के लिए ऐसा कौन सा सिस्टम है जो गड़बड़ियों को उजागर कर सके?
अब बात सीधी है—न्यायपालिका में भी जवाबदेही होनी चाहिए। एक स्वतंत्र ‘न्यायिक जवाबदेही आयोग’ बनाया जाए, जो जजों के भ्रष्टाचार और अनियमितताओं की निष्पक्ष जांच कर सके। वरना हर बार कुछ दिनों की चर्चा के बाद मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा।
अब चुप रहने का वक्त नहीं!
अगर आज न्यायपालिका से सवाल नहीं पूछे गए, तो कल किसी के पास जवाब नहीं होगा। अब जनता का भरोसा तभी कायम रहेगा, जब ये साबित हो कि कोई भी कानून से बड़ा नहीं—चाहे वो कुर्सी पर बैठा हो या कटघरे में खड़ा हो!
वरना एक दिन यही सवाल हर गली, हर चौक पर गूंजेगा—जब खुद गद्दी पर बैठा ही दोषी निकले, तो इंसाफ़ किससे मांगे?