कांवड़ यात्रा हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण यात्रा है। इसमें शिव के भक्तों की त्याग, तपस्या, समर्पण और गज़ब की श्रद्धा झलकती है। क्योंकि कांवड़ को कंधे पर रखकर सैकड़ों किलोमीटर पैदल ले जाना एक शारीरिक और मानसिक समर्पण को दर्शाता है, इसलिए यह एक साधना भी है।
यह यात्रा सावन महीने में इसलिए आयोजित होती है क्योंकि सावन को “शिव का महीना” कहा जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, सावन महीने में ही समुद्र मंथन की घटना हुई थी, जिसमें देवताओं और असुरों ने मिलकर मंथन किया।
इस मंथन में अमृत भी निकला और विष (हलाहल) भी। उस विष से किसी को नुकसान न पहुंचे, इसलिए शिव ने उसे अपने कंठ में धारण किया, जिससे वे नीलकंठ कहलाए। इसी कारण शिव को नीले रंग का दिखाया जाता है, अर्थात् उनके शरीर में विष ही विष है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस विष की उष्णता को शांत करने के लिए देवताओं ने शिव पर गंगाजल चढ़ाया। यह परंपरा ही कांवड़ यात्रा का मूल आधार बनी। इसी कारण कांवड़िए गंगाजल लेकर शिव मंदिरों तक जाते हैं और शिवलिंग पर जलाभिषेक करते हैं।
कथाओं के अनुसार, धरती पर इसकी शुरुआत सबसे पहले परशुराम ने की थी। उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर से कांवड़ में गंगाजल लाकर उत्तर प्रदेश के बागपत के पास स्थित पुरा महादेव का जलाभिषेक किया।
यह परंपरा आज भी जारी है, और बड़ी संख्या में श्रद्धालु गढ़मुक्तेश्वर (अब ब्रजघाट) से गंगाजल लाकर पुरा महादेव का जलाभिषेक करते हैं।
कांवड़िए कहे जाने वाले ये श्रद्धालु बांस के डंडे से बनी कांवड़ उठाते हैं, जिसके दोनों सिरों पर रस्सियों या कपड़ों के सहारे बर्तन लटके होते हैं। इन बर्तनों में जल भरा जाता है।
कांवड़ शब्द संस्कृत के कावड़ से लिया गया है, जिसका अर्थ है बांस का ढांचा, जिसके दोनों सिरों पर बर्तन या भार लटका होता है। यह शब्द ‘कांध’ यानी कंधे से संबंधित है क्योंकि इसे कंधे पर रखकर ले जाया जाता है।
इसकी संरचना संतुलन बनाए रखने में मदद करती है, जिससे भारी जल को लंबी दूरी तक ले जाना संभव होता है।
कांवड़ यात्रा कोई 2014 या 2017 के बाद शुरू हुई परंपरा नहीं है। इसका इतिहास हज़ारों साल पुराना है, जैसा कि पौराणिक कथाएं बताती हैं।
मुझे बचपन से याद है, सैकड़ों किलोमीटर दूर से पैदल चलने वाले कांवड़ियों के पैरों के छाले, उन पर कपड़े बांधकर कष्ट सहते हुए चलना, उफ़्फ! क्या तपस्या थी, जिसे देख कोई भी पिघल जाए। इसी मानवता के कारण लोग उनकी सेवा में लग जाते थे।
मगर, 2014 और 2017 के बाद जब देश में हिंदू त्योहारों का राजनीतिकरण हुआ, तो इसका पहला प्रभाव कांवड़ यात्रा पर पड़ा। जो यात्रा कभी त्याग, तपस्या, श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक थी, वह अब उद्दंडता, हिंसा और सांप्रदायिकता का रूप लेने लगी।कांवड़ियों को एक राजनीतिक उपकरण (tool) की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा।
अमृतकाल में कांवड़िए VVVVVIP बना दिए गए। 2017 के बाद तो सरकार उनके लिए बिछ गई। प्रशासन उनके लिए समर्पित हो गया। हेलिकॉप्टर से फूल बरसाए जाने लगे। इसका परिणाम 2018 में देखने को मिला, जब मंडुआडीह रेलवे स्टेशन पर एक कांवड़िया पैसेंजर ट्रेन के इंजन पर चढ़ गया और उसे लेकर चल पड़ा। किसी तरह ब्रेक लगाकर ट्रेन को रोका गया।
यह उसी सरकारी झुकाव का नतीजा था। हाईवे, यहां तक कि GT रोड भी एक तरफ से बंद कर दी गई और कांवड़ियों के लिए प्रोटोकॉल तैयार हुए। सुविधाएं दी गईं, यह सब सही भी है, इससे किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। उनकी सुरक्षा, भोजन, विश्राम आदि का प्रबंध होना चाहिए और होता भी रहा है। रास्तों पर लोग अपनी श्रद्धा से उनकी सेवा करते रहे हैं। मगर जब धार्मिक त्योहारों का राजनीतिक इस्तेमाल होता है, तो उसका नुकसान सरकार का नहीं, बल्कि उस धर्म का होता है।
जिस शिव ने दूसरों को बचाने के लिए विष पी लिया, उनके भक्त आज उन्हीं के नाम पर हिंसा, अराजकता और उद्दंडता कर रहे हैं। किसी की कार तोड़ी जा रही है, परिवार के साथ जा रहे लोगों को रोका जा रहा है। शिव ऐसा नहीं करते। वे सबके दुख हरते हैं, न कि दुख देते हैं।
यह कैसी तपस्या है? और यह सब हो रहा है सरकार द्वारा उनका मन बढ़ाने से। जब मुख्यमंत्री और डीजीपी खुद उनके सामने झुकेंगे, तो उनका मन तो बढ़ेगा ही। परिणामस्वरूप कई कांवड़िए मनबढ़ हो गए, हर रोज़ हिंसा, तोड़फोड़, अराजकता।
इतिहास गवाह है कि कांवड़ यात्रा मुगल काल से पहले से चली आ रही है। मुगलों और अंग्रेजों के समय तक भी न तो कोई कांवड़ियों पर खतरा था और न ही उनकी ओर से कोई उद्दंडता का उदाहरण।
यहां तक कि 1947 से 2014 तक केंद्र और उत्तर प्रदेश में अनेक सरकारें आईं, मगर तब भी न कोई खतरा था, न ही कोई असामाजिक गतिविधि।
आज, नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ, हिंदुत्व के सबसे बड़े चेहरे हैं। इनके सत्ता में आने के बाद, हिंदू और उसका धर्म खतरे में दिखाया जाने लगा। और उस डर से हिंदू इतना उग्र हो गया कि कोई भी धार्मिक त्योहार सांप्रदायिक हिंसा से अछूता नहीं रह गया।
अब कांवड़ यात्रा रूट पर मुसलमान नहीं चाहिए। उसका आधार, लिंग, सब जांचा जाएगा। दशहरा और रामनवमी में मस्जिदों पर दबाव, होली में मस्जिदों में रंग फेंकने की आज़ादी, और गंदे, भड़काऊ गानों का धार्मिक आयोजनों में बजना, ये नया चलन बन गया है।
लेकिन असल में, इससे मुसलमानों का नहीं, उस धर्म का नुकसान हुआ है जो हज़ारों सालों से अपने शांत और सहिष्णु चरित्र के लिए जाना जाता रहा है। यह चरित्र बदल दिया गया है, और इसका दंड उस धर्म को आने वाले समय में भुगतना होगा।
समय साक्षी रहेगा, कि जिन शिव ने विष पीकर दूसरों को बचाया, उनके नाम पर हजारों लोगों को पीटा गया, उन्हें मानसिक, शारीरिक और आर्थिक कष्ट दिए गए… और मुसलमानों को खलनायक बनाकर प्रताड़ित किया गया।