मजदूर का शोषण सिर्फ सामाजिक या जातीय ढांचे तक सीमित नहीं है, बल्कि औद्योगिक और प्रशासनिक व्यवस्था में भी वही अन्याय दोहराया जाता है। जैसे पारंपरिक व्यवस्था में कमेरा वर्ग को सबसे नीचे रखा गया, वैसे ही आज की औद्योगिक व्यवस्था में मजदूर उसी जगह खड़ा है—नींव की ईंट की तरह, जिस पर पूरा ढांचा टिका है लेकिन जिसकी अहमियत सबसे कम आंकी जाती है।
मजदूर के श्रम से पूंजीवादी व्यवस्था खड़ी होती है, लेकिन उसी व्यवस्था में उसे हाशिए पर धकेल दिया जाता है। उसकी मेहनत से जो साम्राज्य बनता है, वह छल और शोषण की बुनियाद पर टिका होता है। मजदूरों के जायज़ हक को छीनना ही पूंजीवाद की पहली शर्त है, जब तक ये लूट जारी है, तब तक विकास सिर्फ आंकड़ों में होगा, इंसानियत उसमें कहीं नहीं होगी।
जिस मजदूर को औद्योगिक ब्यवस्था का ट्रस्टी होना चाहिए, वही मजदूर, पूंजीबाद आधारित औद्योगिक ब्यवस्था का दास है
सरकारी से लेकर निजी क्षेत्र तक मजदूरों का शोषण व उनकी ब्यथा एक जैसी है जिसे मजदूरों के सामूहिक प्रयास से ही निपटा जा सकता है
ऐसा नही है की मजदूरों ने अपने दासता से मुक्ति का प्रयास नही किया है, मजदूरों ने इसके लिए संघर्ष किया है जिसमें उसे कुछ क्षेत्रों में सफलता मिली तो कुछ में आशातीत सफलता नही मिली
औद्योगिक पूंजीबाद के शुरूआती समय से अब तक, औद्योगिक ब्यवस्था में मजदूरों के अधिकारो को देखे तो नि: संदेह मजदूरों की स्थिति में पहले की अपेक्षा सुधार है, लेकिन संतोषजनक नही कहा जा सकता है
मजदूरों की दशा मे सुधार की प्रक्रिया पिछले कुछ दसकों से ठहर सी, गयी है, जिसका मुख्य कारण है, मजदूरों ने दासता मुक्ति के लिए जिस तंत्र और नेतृत्व का चयन किया वह समय के साथ पूंजीबादी ब्यवस्था में घुल मिल गया है, अर्थात मजदूर बेहतरी का तंत्र और नेतृत्व दोनो पूंजीबादी ब्यवस्था के साथ कदम ताल कर रहे हैं
ऐसे में मजदूरों को, पूंजीबादी औद्योगिक ब्यवस्था की दासता से मुक्ति के लिए नये तंत्र और नेतृत्व की तरफ बढना चाहिए जिसमें मजदूरों के सामूहिक उत्थान की भावना हो और जो मजदूरों को औद्योगिक ब्यवस्था में श्रम ट्रस्टी का भूमिका को मानवीय गरिमा, के साथ स्थापित करा सके
मजदूर का शोषण, मात्र औद्योगिक शोषण न हो कर सामाजिक शोषण है जिस कुब्यवस्था में देश की 90 फीसदी आबादी शामिल है