बलिया जिले के बेरुआरबारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) में घटी वह रात भारतीय ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की नंगी हकीकत को बयां करती है। 26 मई, 2025 की उस स्याह रात ने न सिर्फ चार नवजातों के जन्म और उनकी माताओं के संघर्ष को मोबाइल फोन की कंपकंपाती रोशनी में दर्ज किया, बल्कि व्यवस्था की गहरी खामियों और मानवीय लापरवाही को भी बेनकाब कर दिया।
जिला मुख्यालय से महज 12 किलोमीटर दूर स्थित इस अस्पताल में तीन दिनों से अंधेरा छाया था, क्योंकि ट्रांसफार्मर जल चुका था, और मौजूद जेनरेटर व डीजल के बावजूद अंधकार को दूर करने का कोई प्रयास नहीं हुआ। यही वजह बनी कि चार गर्भवती महिलाओं , नीतू देवी, मंजू देवी, पिंकी देवी और रजिया खातून, को अपने नवजातों को जन्म देने के पवित्र लेकिन पीड़ादायक क्षणों में मोबाइल फोन के फ्लैशलाइट पर निर्भर रहना पड़ा, एक ऐसी स्थिति जो किसी भी सभ्य स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए शर्मनाक और खतरनाक है।
ट्रांसफार्मर की विद्युतहीनता और जेनरेटर की निष्क्रियता
इस दुर्घटना की नींव तीन दिन पहले तक जाती है, जब बेरुआरबारी पीएचसी का मुख्य ट्रांसफार्मर अचानक जलकर खराब हो गया। प्रारंभिक जानकारी के अनुसार, अत्यधिक बोझ या तकनीकी खराबी इसका कारण रही होगी, हालाँकि सटीक वजह जाँच का विषय है। महत्वपूर्ण यह था कि ट्रांसफार्मर के विफल होते ही अस्पताल प्रशासन की ओर से बिजली बहाली के लिए कोई ठोस या त्वरित कार्रवाई नहीं दिखाई दी। यह स्थिति और भी चौंकाने वाली इसलिए बनी कि अस्पताल परिसर में एक पूर्णतः कार्यशील डीजल जेनरेटर और उसके संचालन के लिए पर्याप्त डीजल का स्टॉक मौजूद था।
जानकार सूत्रों के अनुसार, जेनरेटर ऑपरेटर या तो ड्यूटी पर अनुपस्थित था या फिर उसने बिना किसी ठोस वजह के जेनरेटर चालू करने से इनकार कर दिया। कुछ आँकड़े यह भी सुझाते हैं कि जेनरेटर के नियमित रखरखाव में गंभीर लापरवाही बरती गई थी, जिसके कारण उसे चालू करने में तकनीकी अड़चनें आईं। इस पूर्णतः निवारणीय विफलता ने अस्पताल को तीन लंबे दिनों तक अंधकार और बुनियादी सुविधाओं से वंचित कर दिया, जिसका सबसे भीषण खामियाजा उन रोगियों को भुगतना पड़ा जिनके जीवन आपातकालीन चिकित्सा हस्तक्षेप पर निर्भर थे, विशेष रूप से प्रसव पीड़ा से जूझ रही वे चार माताएँ।
मातृत्व की परीक्षा: चार साहसी महिलाओं की पीड़ा
उस भयानक रात जिन चार साहसी महिलाओं ने अकल्पनीय कठिनाई और जोखिम के बीच प्रसव पीड़ा सही और अपने शिशुओं को जन्म दिया, उनमें से प्रत्येक की कहानी अलग-अलग संघर्ष और दृढ़ता की दास्तान बयां करती है। नीतू देवी, जो एक मजदूर परिवार से ताल्लुक रखती हैं और अपने पहले बच्चे को जन्म देने वाली थीं, के परिवार ने बताया कि अस्पताल पहुँचने पर उन्हें लगभग चालीस मिनट तक बिना किसी चिकित्सकीय सहायता के अंधेरे वार्ड में ही रहना पड़ा, जब तक कि स्टाफ ने मोबाइल लाइट का इंतजाम नहीं कर लिया। प्रसव के बाद उन्हें हल्का बुखार और गंभीर कमजोरी महसूस हुई, लेकिन बिजली के अभाव में तुरंत उचित जांच और इलाज संभव नहीं था।
मंजू देवी, जो दो बच्चों की माँ हैं और यह उनका तीसरा प्रसव था, के अनुभव और भी कष्टदायक रहे। उनके परिवार के अनुसार, प्रसव के दौरान उन्हें असामान्य रूप से तीव्र दर्द हुआ और डॉक्टरों को रक्तस्राव की आशंका भी थी। मोबाइल की क्षीण और अस्थिर रोशनी में डॉक्टरों के लिए सही स्थिति का आकलन करना बेहद चुनौतीपूर्ण था। सौभाग्य से, प्रसव सफल रहा, लेकिन मंजू को शारीरिक कमजोरी के साथ-साथ गहरे मानसिक आघात से भी गुजरना पड़ा। पिंकी देवी का मामला विशेष रूप से चिंताजनक था क्योंकि वह एनीमिया से पीड़ित थीं।
गहन अंधेरे में डॉक्टरों के लिए यह आकलन करना अत्यंत कठिन था कि यह सामान्य प्रसवोत्तर थकान है या कोई गंभीर श्वसन या हृदय संबंधी जटिलता। उन्हें मोबाइल की रोशनी में ही प्रारंभिक देखभाल और सहायता दी गई। उनके पति अख्तर अली ने बाद में बताया कि उस रात का डर और असहायता का एहसास उन्हें जीवनभर नहीं भूलेगा। इन चारों महिलाओं और उनके नवजात शिशुओं का जीवित बच जाना एक चमत्कारिक संयोग से कम नहीं है; किसी भी गंभीर जटिलता की स्थिति में परिणाम भयावह हो सकते थे। इस घटना ने इन माताओं को न सिर्फ शारीरिक रूप से कमजोर किया, बल्कि उन्हें गहरे मानसिक आघात और भविष्य की चिंताओं से भी ग्रस्त कर दिया है।