आज पर्यावरण दिवस है। देश के बिगड़ते सांप्रदायिक पर्यावरण के बीच याद आते हैं मौलवी अहमदुल्ला शाह उर्फ डंका शाह और उनकी बेमिसाल कुर्बानी। पेश है उन्हें खिराज-ए-अकीदत
1857 की क्रांति के पांच बड़े पुरोधाओं में एक नाम मौलवी अहमदुल्ला शाह का भी था। घर-घर कमल का फूल और रोटी बांटने की नीति उन्हीं के दिमाग की उपज थी। एक अंग्रेज लेखक जी.बी. मॉलसन के अनुसार वे जंगे आज़ादी के अप्रतिम योद्धा थे, क्योंकि उनका कोई राजपाट नहीं था, जिसके छिनने के बाद उन्होंने अंग्रेजों से जंग लड़ी हो। वे निस्वार्थ रूप से देश से अंग्रेजों को निकालना चाहते थे। यह और बात है कि उन्हें इतिहास में वह मुकाम नहीं मिल सका, जो उन्हें मिलना चाहिए था। हां, लिखने वालों ने यह जरूर लिखा कि उनकी जांबाज़ी से अंग्रेज खौफ खाते थे। उनका उपनाम ‘डंका शाह’ भी हो गया था। भारतीय लेखक के रूप में उनके बारे में पहली बार सावरकर ने अपनी किताब 1857 का स्वातंत्र्य समर में लिखा।
स्वाधीनता संग्राम में अवध की कोई ऐसी बड़ी जंग नहीं थी, जब उन्होंने अपने मोर्चे पर गोरों को पीछे न हटाया हो। जहां वे खुद नेतृत्व करते थे, अक्सर गोरे वहां हारते थे। पांच वक्त की नमाज़ और लंबी दाढ़ी उनकी खास पहचान थी। वे लखनऊ, जौनपुर, बनारस आदि इलाकों में जीत का डंका बजाते हुए पटना तक पहुंच गए और वहां जीत हासिल कर अवध लौटे। तब तक अवध का पतन शुरू हो चुका था। अवध के पतन के बाद भी वे 4 जून 1858 तक अपने संसाधनों से लड़ते रहे। उन्हें मालूम था कि अंग्रेज निर्णायक रूप से जीत चुके थे, मगर उन्होंने युद्ध जारी रखा और आखिरी सांस तक लड़ते रहे।
5 जून 1858 उनके जीवन का आखिरी दिन साबित हुआ। इस दिन वे अवध क्षेत्र के एक रजवाड़े, राजा जगन्नाथ सिंह, के मेहमान थे। मौलवी अहमदुल्ला के सिर पर इनाम घोषित था। आखिरकार, जगन्नाथ सिंह का ईमान डोला। उन्होंने धोखे से मौलवी के महल पहुंचते ही उनका कत्ल कर दिया और उनका सिर अंग्रेजों को पेश कर इनाम हासिल कर लिया।
खिराज-ए-अकीदत मौलवी साहब को।