किसी जगह का असली मिजाज जानना हो, तो दिन की रौशनी में नहीं, बल्कि रात की खामोशी में उतरिए। दिन में दिखने वाला शहर अक्सर बनावटी होता है, सजा-संवरा, औपचारिक और सतही। लेकिन रात आते ही शहर अपने असली रंग में ढलता है। और अगर आप पत्रकार हैं, तो यह रात ही है जो आपको वह दिखा और सुना सकती है, जो दिन में नज़र नहीं आता।
एक सतर्क पत्रकार जानता है कि रात को सड़क किनारे के ढाबों, गली-मुहल्लों में बने दारू के अड्डों और रेलवे प्लेटफॉर्मों पर जमा भीड़ में बहुत कुछ छिपा होता है, न सिर्फ खबरें, बल्कि खबरों के पीछे की कहानियाँ भी। यहाँ लोग बेपरवाही में होते हैं। शराब के नशे में या थकान की राहत में, उनके दिल और ज़ुबान, दोनों खुल जाते हैं। कोई सिस्टम को कोसता है, कोई अपने दर्द बयां करता है, कोई अपनी छोटी-बड़ी जीतों की डींग मारता है। यहीं से एक पत्रकार को सुराग मिलते हैं, अपराध की कहानियाँ, सामाजिक अन्याय के किस्से, व्यवस्था की खामियाँ, और कभी-कभी आने वाले तूफान की आहट भी।
लेकिन यह सब जानने का तरीका थोड़ा अलग होता है। आपको बोलना नहीं है, सुनना है। आंख-कान खोलकर, मगर खुद को मौन बनाए रखना है। अपनी उपस्थिति को हावी नहीं होने देना है। जब आप किसी ढाबे के कोने में बैठकर चाय की चुस्की लेते हुए दूसरों की बातों पर ध्यान देते हैं, तो आपको महसूस होता है कि असल रिपोर्टिंग सिर्फ प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवाल पूछकर नहीं होती, यह तो धड़कते हुए समाज की नब्ज़ पकड़ने का काम है, जो रात की खामोशी में तेज़ सुनाई देती है।
रात का शहर पुलिस के लिए भी एक आइना है। गश्त लगाते हुए वे जानते हैं कि कहाँ, किस गली में असामान्य गतिविधियाँ होती हैं, कौन से इलाके संवेदनशील हैं और कहाँ कानून महज़ दिखावा बनकर रह गया है। एक पत्रकार अगर पुलिस की गतिविधियों पर भी गौर करे, तो यह समझ सकता है कि शहर में अपराध की दिशा क्या है, कौन से हिस्से में क्या पक रहा है।
रात के अंधेरे में अक्सर व्यवस्था की असलियत दिखाई देती है, अस्पताल में मरीजों की बदहाली, बस अड्डों पर सोते मज़दूर, या फिर नाइट क्लब्स की चकाचौंध में छिपे गैरकानूनी कारोबार। ये सब वो ज़मीनी सच्चाइयाँ हैं जो दिन के भाषणों और विज्ञापनों में नहीं मिलतीं।
इसलिए, एक जमीनी पत्रकार के लिए रात सिर्फ एक समय नहीं, एक अवसर है, समाज को बिना पर्दे के देखने का अवसर। और इस देखने-सुनने की प्रक्रिया में उसे खुद को छिपाना होता है, ताकि वह एक बेआवाज़ कैमरे की तरह सब कुछ दर्ज कर सके।
कुल मिलाकर, अगर आप जानना चाहते हैं कि शहर वास्तव में कैसा है, तो दिन का नहीं, रात का रिपोर्टर बनिए। मौन होकर सुनिए, आंखें खोलिए और महसूस कीजिए कि शहर कैसे सांस लेता है। यही पत्रकारिता की असली ज़मीन है।
मैं अपनी बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी, खचाड़ स्कूटी और खराब ड्रेसिंग सेंस के साथ, ऐसे ही कई अड्डों पर बैठ जाता हूँ, कुछ नए मुद्दों को जानता हूँ और एक नई स्टोरी को जन्म दे पाता हूँ।