पहलगाम में 22 अप्रैल को आतंकियों द्वारा 28 पर्यटकों की नृशंस हत्या ने देश के आम जनमानस की आत्मा को भय और विषाद से भर दिया है। इस घटना ने न केवल देश की सुरक्षा के बारे में गंभीर सवाल उठाए, बल्कि हमारी समाजिक एकता और मानवता की भी परीक्षा ली।
युद्ध और आतंकी हमले के बाद आम जनमानस के अंदर देश की सुरक्षा के प्रति सामूहिक करुणामय और उन्मादी राष्ट्रवादी भावना का मिश्रित भाव पैदा करता है, जो किसी भी जीवंत राष्ट्र की निरंतरता की मूल भावना होती है।
देश का नेतृत्व अपने कौशल से ऐसी भावनाओं से प्रस्फुटित ऊर्जा को देश की मौजूदा चुनौतियों और भविष्य के निर्माण के लिए उपयोग कर सशक्त समाज और सशक्त राष्ट्र का निर्माण करता है।
देश के नेतृत्व की जिम्मेदारी बनती है कि संकट से उत्पन्न सामूहिक ऊर्जा का उपयोग राष्ट्र निर्माण में करे, न कि दलीय सशक्तिकरण की दिशा में आगे बढ़े या दलीय लाभ की दिशा में बढ़ रहे संगठनों को किसी तरह का प्रोत्साहन दे।
सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा की अधिकांश मीडिया तक और राजनीतिक दलों के विषय और लेखन को देखने से नहीं लगता कि हम पहलगाम की दुखद घटना से राष्ट्र निर्माण की कोशिश कर रहे हैं। बल्कि मीडिया और राजनीतिक दल, जिनके ऊपर पहलगाम में हुई सुरक्षा चूक को विश्लेषित करने व जिम्मेदारी लेने का दायित्व है, वह राष्ट्र निर्माण की जगह चुनावी कैंपेन करते दिख रहे हैं।
पहलगाम की घटना देश के आम जनमानस के लिए शोक का विषय है, तो शासन, प्रशासन और सुरक्षा एजेंसियों के लिए शर्म का विषय है। लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि यह दुखद घटना राजनीतिक दलों के लिए चुनावी कैंपेनिंग का विषय बन गई है।
अब सवाल यह है:
- क्या हमारे राजनीतिक दल इस आत्मघाती राजनीतिक सोच से ऊपर उठ पाएंगे?
- क्या आतंकियों ने पहलगाम की घटना के ज़रिए हमें धार्मिक उन्माद की ओर धकेल दिया?
- क्या भारत का नेतृत्व इन 28 मासूमों की राख से एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण करेगा या इसी राख पर साम्प्रदायिक चुनावी फसल उगाई जाएगी?
इन्हीं सवालों के ईमानदार उत्तर से हमारे उत्तम भारत की कथा लिखी जाएगी।