हाल ही में एक अंग्रेज़ी टीवी न्यूज़ चैनल ने ‘स्टेट ऑफ द नेशन’ सर्वे किया और बताया कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के लिए 25% पसंदीदा वोट मिले जबकि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नरेंद्र मोदी को 52% वोट मिले।
अगर इस तरह के सर्वे एक सांप्रदायिक रूप से प्रभावित आबादी में किए जाएं तो एक धर्मनिरपेक्ष समाज-राजनीतिक सुधारक नेता को स्वाभाविक रूप से कम वोट मिलेंगे।
ऐसे मोबाइल फोन सर्वे कोई रुझान तो दिखा सकते हैं, लेकिन मीडिया इस बात को कम करके आंक रहा है कि भारतीय समाज-राजनीतिक व्यवस्था में सुधार के लिए राहुल गांधी की लड़ाई का दीर्घकालिक असर देश के लिए कितना बड़ा भला कर सकता है। अगर क्षेत्रीय पार्टियां वास्तविक चुनावों में राहुल गांधी के साथ आती हैं, तो ऐसे ऑनलाइन सर्वे बेकार साबित हो जाएंगे।
अगर राहुल गांधी समानता और सामाजिक न्याय की सुधारवादी राजनीति के साथ प्रधानमंत्री बनते हैं, तो भारतीय इतिहास उन्हें उसी तरह याद करेगा जैसे अमेरिकी अब्राहम लिंकन को याद करते हैं। लेकिन भारतीय मीडिया भी उनके इस सुधारवादी भारत निर्माण संघर्ष के खिलाफ है।
राहुल गांधी का अप्रत्याशित उभार
राहुल गांधी एक प्रताड़ित विपक्षी नेता हैं, जिनकी पार्टी संसद में 100 सीटों पर है। उन पर कई मुकदमे सिर्फ परेशान करने के लिए लादे गए हैं। उन्होंने कांग्रेस को कठिन राज्यों जैसे तेलंगाना, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में जीत दिलाई। इससे पहले, उनके नेतृत्व में पार्टी पंजाब में भी जीती थी।
चुनावी संघर्ष में राहुल गांधी भाजपा के किसी भी नेता, यहां तक कि मोदी से भी बड़े जननेता बन चुके हैं। मोदी भी 2001 में भाजपा नेतृत्व द्वारा गुजरात भेजे जाने से पहले जननेता नहीं थे। गोधरा कांड और 2002 गुजरात दंगों के बाद मोदी एक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने वाले नेता बने। उनका मुख्य एजेंडा मुस्लिम और ईसाई विरोधी रहा, जिन्हें “विदेशी धर्म” बताकर आरएसएस-भाजपा की सौ वर्षीय वैचारिक मुहिम का हिस्सा बनाया गया।
मोदी ने खुद को नेहरू परिवार विरोधी एक मज़बूत नेता के रूप में भी प्रस्तुत किया। 2014 का चुनाव उन्होंने कांग्रेस-नीत संप्रग (यूपीए) के दस सालों के शासन और ‘गैर-राजनीतिक’ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दौर में जीता। उस समय तक न तो मनमोहन सिंह और न ही सोनिया गांधी बड़े सार्वजनिक सभाओं को संबोधित करने की स्थिति में थे।
उस परिस्थिति में राहुल गांधी को यह नहीं पता था कि मोदी से कैसे लड़ना है, जो खुद को पहला ओबीसी प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताते हुए भाजपा के मुख्य प्रचारक बन गए थे।
असामान्य परवरिश
इंदिरा गांधी (उनकी दादी) की निर्मम हत्या और राजीव गांधी (उनके पिता) की हत्या के बाद राहुल गांधी ऐसे माहौल में बड़े हुए जिसमें उनके परिवार पर गंभीर खतरा मंडराता रहा। उन्हें भारत की वास्तविकता, खासकर जाति व्यवस्था और उससे जुड़ी हिंसा का अनुभव नहीं था।
आरएसएस और मोदी के पास भी सामाजिक या जातीय सुधार का कोई एजेंडा नहीं था, जबकि चुनाव में ओबीसी कार्ड खेला जा रहा था।
लेखक के अनुसार, 2014 चुनाव से पहले जब उन्होंने राहुल गांधी से मुलाकात की, तो राहुल को इस बात का अंदाज़ा ही नहीं था कि ओबीसी कार्ड चुनाव नतीजों को कैसे प्रभावित करेगा।
भारत जटिल देश है। आरएसएस जैसी संगठनात्मक ताकत का मुकाबला करने के लिए राहुल गांधी को व्यक्तिगत संघर्ष और सुधार के दौर से गुजरना पड़ा।
यात्राओं ने दिखाया असली भारत
दिल्ली में सत्ता पर काबिज़ इतने ताकतवर सामाजिक विभाजनकारी नेटवर्क से लड़ने के लिए, राहुल गांधी को खुद को नेता के रूप में गढ़ना पड़ा। उनके पास भारतीय जाति व्यवस्था, कृषि और श्रमिक जातियों की शिक्षा स्थिति को समझकर सामाजिक-राजनीतिक सुधार का रास्ता अपनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
2014 से मोदी ने राजनीति को जाति पर केंद्रित कर दिया था, इसलिए राहुल गांधी को भी संघर्ष के अनुभव से राजनीति को समझना पड़ा। उनकी ही पार्टी संरचना जाति जनगणना, ग्रामीण इलाकों में सबके लिए अंग्रेज़ी माध्यम शिक्षा और जातीय विभाजन कम करने जैसे गंभीर मुद्दों पर चर्चा के खिलाफ थी।
पहली भारत जोड़ो यात्रा ने राहुल गांधी को रास्ता दिखाया। सोशल मीडिया ने उनकी छवि बदली, हालांकि मुख्यधारा मीडिया हमेशा सवाल करता रहा—क्या ऐसी यात्राओं से वोट मिलते हैं? उन्होंने उनके नारे “नफरत की बाज़ार में, मोहब्बत की दुकान” को केवल भाजपा विरोधी सांप्रदायिकता के रूप में देखा, लेकिन उसमें भारतीय जाति और अस्पृश्यता व्यवस्था को चुनौती देने का गहरा संदेश था।
इस नारे ने शिक्षित दलित और ओबीसी युवाओं को मुस्लिम युवाओं से ज्यादा आकर्षित किया।
भारत जोड़ो न्याय यात्रा ने इस संदेश को और स्पष्ट किया। मुख्यधारा मीडिया ने उस नए राहुल गांधी को नहीं पहचाना, जो जातिवाद और उच्चवर्गवाद विरोधी सुधार के साथ सत्ता पर काबिज़ आरएसएस-भाजपा को चुनौती देने निकले थे।
लोकसभा में 100 सीटें जीतकर जब राहुल गांधी विपक्ष के नेता बने, तो उन्होंने आधी लड़ाई जीत ली। सिर्फ वोट हेरफेर एक चीज़ है, लेकिन चुनावी प्रक्रिया को सामाजिक सुधार की दिशा में धकेलना दूसरी। आंबेडकर और गांधी के बाद किसी भारतीय नेता ने यह तरीका नहीं अपनाया।
‘वोट चोरी’ अभियान
“वोट चोरी” अभियान के साथ, जैसा कि राहुल गांधी खुद कहते हैं, उन्होंने “आग से लड़ना” शुरू किया। बिहार में उनका दृढ़ निश्चयी #VoterAdhikarYatra नई लामबंदी दिखा रहा है। यह सिर्फ चुनाव जीतने का मुद्दा नहीं है, बल्कि लोकतंत्र बचाने का सवाल है।
फिर भी, बड़ा मीडिया जानबूझकर राहुल गांधी की यात्राओं और अभियानों को केवल वोट और सत्ता राजनीति तक सीमित करता है। सभी खेमों के ऊपरी जाति वर्ग उन्हें समाज-राजनीतिक सुधारक नेता के रूप में पेश नहीं करना चाहते।
मुख्यधारा मीडिया जाति और शिक्षा सुधार नहीं चाहता क्योंकि इससे उनकी ऐतिहासिक प्रभुत्वशाली स्थिति पर संकट आ जाएगा। उदारवादी और वामपंथी धर्मनिरपेक्ष अभियान भी जाति सुधार को शामिल नहीं करते। जाति जनगणना का विचार ‘संख्या चेतना’ के ज़रिए इस प्रभुत्व को चुनौती देता है। राहुल गांधी लगता है इसकी गहरी अहमियत समझ गए हैं कि यह चेतना दबे-कुचले वर्गों को ‘साइलेंट माइनॉरिटी’ के दोहरे मापदंडों को उजागर करने में मदद करती है।
मूलतः यह आलेख न्यूज़ क्लिक पर अंग्रेजी भाषा में लिखा गया है।