1948 के नंबर की टी-शर्ट पहने यह रीमा हसन मुबारक हैं। रीमा हसन मुबारक यूरोपीय संघ (European Union) की सांसद हैं। वह रीमा रिफ्यूजी कैंप्स ऑब्ज़र्वेटरी नामक संगठन चलाती हैं, जो दुनिया भर में शरणार्थी शिविरों के अध्ययन और संरक्षण के लिए समर्पित है।
रीमा वर्तमान में इज़राइल के रामल्ला स्थित गिवॉन डिटेंशन सेंटर में सिर्फ इसलिए बंद हैं, क्योंकि गाज़ा की मदद के लिए लाई जा रही राहत सामग्री के साथ जो 11 सदस्य ग्रेटा थनबर्ग के साथ थे, उनमें एक रीमा भी थीं।
सभी सदस्यों को एक फॉर्म पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया। ग्रेटा थनबर्ग ने उस पर हस्ताक्षर किए और उन्हें उनके देश डिपोर्ट कर दिया गया। लेकिन रीमा ने हस्ताक्षर नहीं किए, इसलिए उन्हें डिटेंशन सेंटर भेज दिया गया।
1948 क्या है?
1948 वह वर्ष है, जो दुनिया को यह सबक देता है कि, अगर तुमने किसी शोषित और पीड़ित की आज मदद की, तो हो सकता है कि वह एक दिन इतना शक्तिशाली बन जाए कि तुम्हारे ही ऊपर अत्याचार करने लगे और तुम्हें पीड़ित बना दे।
हिटलर, नाज़ी आतंक और यहूदी पलायन
दरअसल, 1933 में जब हिटलर सत्ता में आया, तो उसके नाज़ी शासन ने न्यूरेमबर्ग क़ानून (1935) और क्रिस्टलनाख़्ट (1938) जैसे कदमों के ज़रिये यहूदियों पर अत्याचार बढ़ा दिए। जर्मनी में उत्पीड़न से बचने के लिए यहूदियों ने पलायन शुरू किया, लेकिन दुनिया के अधिकांश देशों ने उन्हें शरण देने से इनकार कर दिया।
आख़िरकार, वे फिलिस्तीन के समुद्री तट पर भूखे-प्यासे नावों में भरकर आ पहुँचे। उस समय (1917-1948), प्रथम विश्व युद्ध के बाद, फिलिस्तीन ब्रिटिश मैंडेट के अधीन था। ब्रिटिश सरकार ने यहूदियों को शरण देने के लिए भूमि मुहैया कराई और अगले 18 वर्षों तक दुनिया भर के यहूदी वहाँ आकर बसते रहे। फिलिस्तीनी लोगों ने इन पीड़ित यहूदियों का दिल खोलकर स्वागत किया।
1933 से 1939 के बीच लगभग 60,000 यहूदी जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों से ब्रिटिश-शासित फिलिस्तीन में आए। इस चरण को पाँचवीं आलिया कहा जाता है।
क्या है पाँचवीं आलिया
आलिया (Aliyah) हिब्रू भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है ऊपर चढ़ना या उन्नति करना। यहूदी परंपरा में, यह फिलिस्तीन (या इज़राइल) लौटने की प्रक्रिया का प्रतीक है। यहूदियों के विभिन्न प्रवासों को क्रमशः पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी और पाँचवीं आलिया कहा गया।
1939 में ब्रिटिश सरकार ने व्हाइट पेपर लागू किया, जिससे यहूदियों का पलायन प्रतिबंधित हो गया। इसके बावजूद यहूदी अवैध रूप से फिलिस्तीन आते रहे और फिलिस्तीनी उनकी मदद करते रहे।
होलोकॉस्ट के बाद, लाखों यहूदी यूरोप के शरणार्थी शिविरों से फिलिस्तीन पहुँचे। जिस भूमि पर वे रह रहे थे, वह फिलिस्तीनी लोगों की थी। इन्हीं लोगों ने उनकी जान बचाई और जीने का सहारा दिया।
डेविड बेन-गुरियन और ज़ायोनी आंदोलन
डेविड बेन-गुरियन, जो 1906 में पहली आलिया में पोलैंड से फिलिस्तीन आए थे, ज़ायोनी आंदोलन के प्रमुख नेता बने। उन्होंने यहूदियों को संगठित किया।
1947 में संयुक्त राष्ट्र की प्रस्ताव संख्या 181 के तहत फिलिस्तीन को यहूदी और अरब राज्यों में बाँटने की योजना बनाई गई। यहूदी नेताओं ने इसे स्वीकार कर लिया, लेकिन अरब देशों ने अस्वीकार कर दिया।
14 मई 1948: जब मेहमानों ने घर को देश बना लिया
सिर्फ 10 वर्षों की शरण के बाद, 14 मई 1948 को, डेविड बेन-गुरियन ने तेल अवीव में इज़राइल की स्वतंत्रता की घोषणा की और इसके पहले प्रधानमंत्री बने।
यह वैसा ही है जैसे किसी पीड़ित को आपने अपने घर में शरण दी, और कुछ वर्षों बाद उसी ने आपके घर पर अधिकार कर लिया और आपको ही वहाँ बंधक बना लिया।
इसी 1948 में यहूदियों ने वह ज़मीन हथिया ली, जो कभी फिलिस्तीनी लोगों की थी, और उस पर इज़राइल नामक स्वतंत्र राष्ट्र की घोषणा कर दी गई।
रीमा हसन का संदेश: 1948 को मत भूलो
रीमा हसन ने 1948 अंक वाली टी-शर्ट पहनकर यहूदियों को याद दिलाया कि जिस ज़मीन पर तुमने अधिकार जमाया, वह तुम्हें शरण देने वालों की थी।
इज़राइल की स्वतंत्रता की घोषणा के केवल 11 मिनट बाद अमेरिका ने उसे मान्यता दी। इसके बाद सोवियत संघ, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और अन्य देशों ने भी इसे मान्यता दी। 11 मई 1949 को इज़राइल संयुक्त राष्ट्र का पूर्ण सदस्य बन गया।
अरब विरोध और संघर्ष की शुरुआत
अरब देशों ने फिलिस्तीनियों के साथ हुए इस विश्वासघात को कभी स्वीकार नहीं किया, और यही संघर्ष आज तक जारी है।
रीमा हसन का संदेश साफ़ है, 1948 को याद रखो, जब तुमने उन्हीं लोगों को धोखा दिया जिन्होंने तुम्हारी ज़िन्दगी बचाई थी।
हिटलर ने कहा था, मैंने कुछ यहूदियों को ज़िंदा छोड़ दिया ताकि दुनिया देख सके कि मैंने जो किया, वह क्यों किया।