सदर साहब यानी असदुद्दीन ओवैसी और उनके छोटे भाई अकबरुद्दीन ओवैसी की राजनीति का एकमात्र स्थायी तत्व है: मौकापरस्ती। उनके दादा अब्दुल वाहिद ओवैसी और पिता सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी की कांग्रेस से करीबी किसी से छुपी नहीं थी। सुल्तान ओवैसी तो इंदिरा गांधी को दारुस्सलाम में चाय पिलाते थे। पर जैसे ही कांग्रेस की पकड़ ढीली हुई, ओवैसी परिवार ने करवट बदल ली।
AIMIM की जड़ें: निज़ाम से नई दिल्ली तक
AIMIM की स्थापना 1927 में हैदराबाद के निज़ाम के हितों के लिए हुई थी। आज़ादी के बाद इसे प्रतिबंधित कर दिया गया, लेकिन 1958 में इसे अब्दुल वाहिद ओवैसी ने फिर से जीवित किया। इसके बाद AIMIM ने मुस्लिम प्रतिनिधित्व के नाम पर सियासी सौदेबाज़ी को नया आयाम दिया। सुल्तान ओवैसी ने इसे कॉलेजों, अस्पतालों और अख़बारों के ज़रिए एक मिनी-साम्राज्य में बदल दिया। यही आधार असदुद्दीन और अकबरुद्दीन की ताक़त बना।
सत्ता की गोद में मजलिस
चाहे केंद्र में कांग्रेस हो, राज्य में टीआरएस या अब कांग्रेस फिर से, AIMIM हर बार जीतने वाले के साथ खड़ी मिलती है। 2004 से 2012 तक कांग्रेस की गोदी में बैठकर मजलिस ने हैदराबाद में अपना राज मजबूत किया। लेकिन जैसे ही कांग्रेस कमज़ोर हुई, AIMIM ने उसे सांप्रदायिक करार देकर गठबंधन तोड़ दिया और KCR के साथ हो गई।
जब केंद्र में मोदी सरकार आई, AIMIM ने विपक्षी स्वर तो अपनाया लेकिन इतनी सावधानी से कि ED और IT के छापों से बचे रहें। यूपीए सरकार के दौरान राष्ट्रपति चुनाव में प्रणब मुखर्जी को समर्थन देने वाली AIMIM, 2014 के बाद कांग्रेस को भाजपा जितना ही कोसने लगी। पर जैसे ही तेलंगाना में 2023 में कांग्रेस की सरकार बनी, AIMIM ने कांग्रेस विरोधी बयानबाज़ी बंद कर दी और मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी की प्रशंसा शुरू कर दी।
कांग्रेस को गालियाँ, फिर अचानक प्रेम
2012 से AIMIM कांग्रेस की आलोचक बनी, अकबरुद्दीन ने भाषणों में तीखे हमले किए। बाबरी विध्वंस से लेकर मुस्लिम हाशियेकरण तक हर मुद्दे पर कांग्रेस को कोसा गया। लेकिन 2023 के चुनावों में कांग्रेस की वापसी के बाद असदुद्दीन ओवैसी अचानक कांग्रेस प्रत्याशियों के लिए वोट मांगते नज़र आए। मज़ेदार बात ये कि उन्होंने अपने भाषण में उम्मीदवारों को नाम से नहीं, बल्कि मोटे आदमी, सफेद बालों वाले और दुबले वाले जैसे विशेषणों से पुकारा, जैसे कह रहे हों, हम समर्थन तो दे रहे हैं, लेकिन मजबूरी में।
₹15,000 करोड़ का रहस्य
ओवैसी भाइयों की संपत्ति को लेकर तरह-तरह के दावे हैं, कोई ₹15,000 करोड़ कहता है, तो कोई उन्हें वक्फ की ज़मीनों का बादशाह मानता है। हालांकि चुनावी हलफनामों में असदुद्दीन ने सिर्फ़ ₹24 करोड़ की संपत्ति घोषित की है, जिसमें एक आलीशान बंगला, कुछ जमीनें और भाई से लिया गया पर्सनल लोन शामिल है। AIMIM के दफ्तर और दारुस्सलाम कॉम्प्लेक्स जैसी संपत्तियाँ अलग से हैं, जिनकी पारदर्शिता पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं।
वक्फ बोर्ड की ज़मीनों पर अवैध कब्ज़ों से लेकर पुराने शहर में अघोषित व्यापारिक साझेदारियाँ, आरोप तो बहुत हैं, लेकिन कार्रवाई शून्य। इसीलिए विरोधी कहते हैं कि AIMIM भाजपा की बी टीम है, जिससे उसे न कोई छापा पड़ता है, न कोई पूछताछ होती है। AIMIM का भाजपा और कांग्रेस दोनों से संबंध कूटनीतिक दूरी बनाए रखने जैसा है, न ज़्यादा पास, न ज़्यादा दूर।
देशभक्ति का चोला
असदुद्दीन ओवैसी हर मंच पर खुद को देशभक्त साबित करते हैं, संविधान की किताब हाथ में लेकर भाषण देना हो या तिरंगे के साथ फोटो खिंचवाना। उनकी रणनीति साफ है: मुसलमानों के मुद्दों पर मुखर रहो, लेकिन देशद्रोह के दायरे में मत आओ।
अकबरुद्दीन, जिनके 15 मिनट वाले बयान ने तूफान खड़ा कर दिया था, अब संयमित भाषा में विधान सभा में बोलते हैं और कोर्ट से बेल की उम्मीद रखते हैं। AIMIM अब अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत के रुख से ज़्यादा अलग नहीं बोलते, चाहे चीन हो या यूक्रेन।
ब्रदर्स: सियासत के मौसम वैज्ञानिक
कहा जाता है कि AIMIM एक शहर की पार्टी है, लेकिन असदुद्दीन और अकबरुद्दीन ने इसे राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना दिया है। AIMIM की राजनीति एक ही सिद्धांत पर टिकी है: ओवैसी परिवार की सुरक्षा और सत्ता में हिस्सेदारी। आज कांग्रेस को गालियाँ, कल उसके लिए वोट माँगना। ये सब उनके सियासी शतरंज का हिस्सा है।
ओवैसी ब्रदर्स के लिए स्थायी कोई विचारधारा नहीं, जो स्थायी है वो है अपने वोट बैंक की रक्षा और व्यापारिक साम्राज्य की तरक्की। आखिर में, उनके लिए राजनीति कोई विचार नहीं, बल्कि बचाव की रणनीति है। और इस खेल में वे माहिर हैं।