80-90 के दशक में सद्दाम हुसैन उसी तरह अमेरिका के खासमखास थे, जैसे आज सऊदी अरब और क़तर इत्यादि देशों के किंग खासमखास हैं। खासकर 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद, ईरान के अमेरिका और इज़राइल से संबंध खराब हो गए। उसी समय 1979 में इराक़ के राष्ट्रपति बने सद्दाम हुसैन को अमेरिका ने अपना दोस्त बना लिया और अमेरिका के कहने पर ही सद्दाम हुसैन ने 1980-1988 तक ईरान से युद्ध किया, जिसमें अमेरिका ने इराक़ का अप्रत्यक्ष समर्थन किया।
ईरान के खिलाफ आठ साल चले इस युद्ध ने इराक को कंगाल बना दिया और उस पर लगभग 80-100 अरब डॉलर का कर्ज हो गया। कर्ज़ देने वालों में कुवैत और सऊदी अरब जैसे खाड़ी देशों का बड़ा हिस्सा था।
इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन चाहते थे कि कुवैत और अन्य खाड़ी देश इराक का कर्ज माफ कर दें क्योंकि उनका दावा था कि इराक ने युद्ध में ईरान के खिलाफ लड़कर पूरे अरब जगत की रक्षा की थी।
कुवैत ने कर्ज़ माफी से इनकार कर दिया, जिससे तनाव बढ़ा और इराक ने आरोप लगाया कि कुवैत और संयुक्त अरब अमीरात (UAE), ओपेक (OPEC) के तेल उत्पादन कोटे से अधिक तेल का उत्पादन कर रहे थे। इससे तेल की कीमतें गिर रही थीं, जो इराक की अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदायक थीं।
इराक का दावा था कि कुवैत, इराक-कुवैत सीमा पर स्थित रुमैला तेल क्षेत्र से अवैध रूप से तेल निकाल रहा था, जिसे इराक अपना मानता था।
दरअसल, सद्दाम हुसैन खुद को अरब जगत का नेता स्थापित करना चाहते थे। कुवैत पर कब्जा करके वह इराक को क्षेत्रीय महाशक्ति बनाने और तेल संसाधनों पर नियंत्रण बढ़ाने की कोशिश में थे।
इराक ने 2 अगस्त 1990 को कुवैत पर आक्रमण कर दिया। यह आक्रमण सफल रहा और कुछ ही घंटों में कुवैत पर कब्जा हो गया। कुवैत, अमेरिका को सबसे अधिक तेल देता था। इराक द्वारा कुवैत पर कब्जे से अमेरिका के हित प्रभावित हुए और सद्दाम हुसैन से उसके संबंध ख़राब हो गए।
इस आक्रमण ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय, खासकर अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र को इराक के खिलाफ एकजुट कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप जॉर्ज बुश प्रथम के नेतृत्व में 1991 का अमेरिका-इराक खाड़ी युद्ध हुआ और कुवैत पर से इराक का कब्जा खत्म हुआ।
सद्दाम हुसैन के महलों से लेकर इराक के होटलों, कार्यालयों और महत्वपूर्ण संस्थानों के मुख्य द्वार पर जॉर्ज बुश प्रथम के चित्र ज़मीन पर बनाए गए, ताकि लोग जॉर्ज बुश प्रथम के सिर पर जूते रखकर अंदर आएं।
अमेरिका और इराक की तनातनी और कड़वाहट बढ़ती रही और जब 1998 में इराक ने OPEC की अध्यक्षता की तो सद्दाम हुसैन ने डॉलर की बजाय अन्य सभी मुद्राओं में भुगतान लेने की व्यवस्था कर दी।
यह अमेरिका के आर्थिक साम्राज्य को चुनौती थी। जैसे आज BRICS की करेंसी पर अमेरिका आगबबूला है, वैसे ही तब हुआ, मगर सद्दाम हुसैन टस से मस नहीं हुए।
इसके बाद 20 जनवरी 2001 को जॉर्ज बुश प्रथम के बेटे जॉर्ज बुश द्वितीय अमेरिका के राष्ट्रपति बने और अपने पिता के अपमान का बदला लेने के लिए इराक और सद्दाम हुसैन पर सामूहिक विनाश के रासायनिक हथियार (WMD) होने का दावा किया और उन पर अल-कायदा जैसे आतंकवादी संगठनों से संबंध होने का आरोप लगाया।
यह ठीक वैसा ही है, जैसे आज ईरान पर परमाणु हथियार बनाने के आरोप लगाकर अमेरिका, ईरान पर इज़राइल के जरिए आक्रमण कर रहा है।
इराक बार-बार इस बात से इनकार करता रहा कि उसके पास सामूहिक विनाश के रासायनिक हथियार (WMD) हैं। 2002-2003 में संयुक्त राष्ट्र ने UNMOVIC (United Nations Monitoring, Verification and Inspection Commission) और IAEA (International Atomic Energy Agency) के नेतृत्व में इराक में हथियारों की जाँच के लिए टीमें भेजीं, जिसका उद्देश्य यह पता लगाना था कि क्या इराक के पास रासायनिक, जैविक या परमाणु हथियार हैं, जैसा कि अमेरिका और उसके सहयोगियों ने दावा किया था।
UNMOVIC के प्रमुख हंस ब्लिक्स और IAEA के प्रमुख मोहम्मद अल-बरादेई ने जाँच की अगुवाई की और अपनी अंतरिम रिपोर्टों में कहा कि उन्हें इराक में सामूहिक विनाश के हथियारों (रासायनिक, जैविक या परमाणु) के कोई सबूत नहीं मिले।
फरवरी 2003 में, हंस ब्लिक्स ने संयुक्त राष्ट्र में खड़े होकर कहा कि जाँच में कोई सक्रिय WMD कार्यक्रम नहीं पाया गया। वहीं IAEA ने भी पुष्टि की कि इराक का परमाणु हथियार कार्यक्रम सक्रिय नहीं था।
इसके बावजूद जॉर्ज बुश द्वितीय ने, 90% मतों से राष्ट्रपति चुने जाते रहे सद्दाम हुसैन के इराक में “लोकतंत्र स्थापित करने” की बात कही, जैसे आज ईरान के संदर्भ में कही जा रही है।
2003 में अमेरिका ने इराक पर आक्रमण किया और बाकी सब इतिहास है… सद्दाम हुसैन को फांसी पर लटका दिया गया।
उस जुर्म में, जो जुर्म हर शासक करता है। आज तक दुनिया का कोई शासक ऐसा नहीं हुआ जिसने यह जुर्म न किया हो… मगर सज़ा सिर्फ सद्दाम हुसैन को मिली और जॉर्ज बुश द्वितीय ने अपने पिता के अपमान का बदला पूरा किया।
कहने का मतलब यह है कि ओसामा बिन लादेन, बगदादी से लेकर सद्दाम हुसैन तक तमाम उदाहरण हैं, जो अमेरिका की गोद में पले-बढ़े और फिर अमेरिका ने ही उनका अंत कर दिया…
वही अब ईरान के साथ कर रहा है, सेम पैटर्न… मगर ईरान उन सबके अंजाम से सबक सीख कर खुद को इतना मजबूत कर चुका है कि उनकी चूलें हिली हुई हैं।
कहने का अर्थ यह है कि अमेरिका पर भरोसा करना सदैव खतरनाक रहा है — जब तक उसके आर्थिक हित सधेंगे, तभी तक वह दोस्त है, नहीं तो पलट कर वार करता है।
यह ‘दोलांड’ वाले भी समझ लें।