सवर्ण समुदाय के बीच यह धारणा गहरी और प्रबल है कि वे जन्म से ही श्रेष्ठ हैं, और बाकी सभी समुदाय उनकी तुलना में कमतर या नीच हैं। इस मानसिकता के अनुसार, अन्य समुदायों को उनके अधीन रहना चाहिए, जैसे कि वे उनके दास हों। सवर्णों का यह भी दृढ़ विश्वास है कि समाज के सभी संसाधन, चाहे वह आर्थिक, सामाजिक, या राजनीतिक हों, पर उनका प्राथमिक अधिकार है। यह सोच न केवल सामाजिक संरचना में उनके वर्चस्व को बनाए रखने की कोशिश करती है, बल्कि अन्य समुदायों को हाशिए पर धकेलने का भी काम करती है।
अन्य जातियों में समान प्रवृत्ति
कुछ अन्य जातियां भी इस तरह की श्रेष्ठता की भावना से ग्रस्त हैं। हालांकि, इन जातियों में यह बोध उतना प्रबल नहीं है, क्योंकि वे मुख्य रूप से खेती, किसानी, पशुपालन जैसे मेहनत और परिश्रम से जुड़े कार्यों में संलग्न हैं। इन कार्यों की प्रकृति और सामाजिक संदर्भ के कारण उनकी श्रेष्ठता की भावना सवर्णों जितनी आक्रामक और दमनकारी नहीं बन पाती। फिर भी, यह मानसिकता समाज में विभिन्न स्तरों पर मौजूद है और सामाजिक समरसता को चुनौती देती है।
हिटलर की विचारधारा से समानता
यह सोच ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से हिटलर की विचारधारा से मिलती-जुलती है, जिसने नाज़ी आर्यन नस्ल को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया और यह दावा किया कि केवल उन्हें ही जीने का अधिकार है। हिटलर की यह विचारधारा न केवल नस्लवादी थी, बल्कि उसने मानवता के खिलाफ अपराधों को जन्म दिया। उसी तरह, भारत में यह श्रेष्ठता बोध सामाजिक असमानता और अन्याय को बढ़ावा देता है, जिसके परिणामस्वरूप समाज में तनाव और विभाजन पैदा होता है।
तंत्र का समर्थन और राजनीतिक हिंसा
यह सब अनायास नहीं है। इसके पीछे एक सुनियोजित तंत्र काम करता है, जो सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर इस मानसिकता को पोषित करता है। इसका एक उदाहरण हाल के राजनीतिक घटनाक्रमों में देखा जा सकता है, जहां एक पूर्व मुख्यमंत्री और देश की तीसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के मुखिया को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने की बात की जाती है। एक वर्तमान सांसद को केवल इसलिए जान से मारने की धमकी दी जाती है, क्योंकि उन्होंने किसी को “गद्दार” कह दिया। यह वही लोग हैं जो खुद दूसरों को गद्दार कहने में कोई कसर नहीं छोड़ते, मानो देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम उनकी निजी संपत्ति हो। यह दोहरा मापदंड उनकी पाखंडी मानसिकता को उजागर करता है और समाज में हिंसा व वैमनस्य को बढ़ावा देता है।
सामाजिक समानता की आवश्यकता
सामाजिक समानता और सुरक्षा के लिए जरूरी है कि इस जातिवादी आतंकवाद को निर्णायक रूप से जवाब दिया जाए। यह जवाब न केवल कानूनी और राजनीतिक स्तर पर होना चाहिए, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी होना चाहिए। समाज के हर वर्ग को यह समझना होगा कि श्रेष्ठता का यह बोध न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि यह पूरे समाज के लिए घातक है। एक समावेशी और समतामूलक समाज की स्थापना तभी संभव है, जब हम इन विभाजनकारी ताकतों का डटकर मुकाबला करें और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को मजबूती से लागू करें।