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अंतरधार्मिक विवाह में सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट ने अंतरधार्मिक विवाह मामले में कहा कि दो वयस्कों की सहमति से हुई शादी में राज्य का हस्तक्षेप अनुचित है।

दिसंबर 2024 में अमान सिद्दीकी ने उत्तराखंड के रुद्रपुर में एक हिंदू महिला से हिंदू रीति-रिवाजों से विवाह किया, जिसमें दोनों परिवार मौजूद थे। दो दिन बाद महिला के कुछ रिश्तेदारों और संगठनों ने एफआईआर दर्ज कराई। सिद्दीकी पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने धर्म छिपाकर विवाह किया और धर्मांतरण के लिए प्रेरित किया।

उत्तराखंड धर्म स्वतंत्रता अधिनियम 2018 और भारतीय न्याय संहिता की धाराओं के तहत मामला दर्ज हुआ। सिद्दीकी को गिरफ्तार कर छह महीने जेल में रखा गया, जबकि पत्नी ने कोर्ट में बयान दिया कि विवाह स्वेच्छा से हुआ था।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला और टिप्पणियाँ

19 मई 2025 को सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशीय पीठ ने सिद्दीकी को जमानत देते हुए स्पष्ट किया कि दो वयस्कों द्वारा परिवारों की सहमति से किया गया विवाह राज्य के हस्तक्षेप का विषय नहीं हो सकता। अदालत ने यह भी कहा कि संविधान प्रत्येक नागरिक को जीवनसाथी चुनने और साथ रहने का अधिकार देता है।

हाईकोर्ट द्वारा जमानत याचिका खारिज किए जाने को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विवाह के बाद उठी आपत्तियाँ कानूनी कार्यवाही को प्रभावित नहीं कर सकतीं। कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया कि सिद्दीकी को तुरंत रिहा किया जाए।

धार्मिक स्वतंत्रता कानून बनाम व्यक्तिगत अधिकार

उत्तराखंड धर्म स्वतंत्रता अधिनियम का उद्देश्य जबरन धर्मांतरण रोकना है, परंतु कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि विवाह वयस्कों की सहमति से हुआ है और उसमें कोई दबाव नहीं है, तो कानून का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता।

यह फैसला लव जिहाद जैसे विवादों के संदर्भ में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के रूप में देखा जा रहा है। कोर्ट ने इस तथ्य को भी महत्व दिया कि चार्जशीट दाखिल हो चुकी है और आरोपी छह महीने जेल में रह चुका है। साथ ही, पत्नी द्वारा दिए गए स्वतंत्र बयान को भी निर्णायक माना गया।

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भविष्य पर असर और सामाजिक संकेत

यह फैसला न केवल सिद्दीकी को राहत देने वाला है, बल्कि आने वाले समय में अंतरधार्मिक विवाहों के मामलों में कानूनी दृष्टिकोण को भी प्रभावित कर सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार, यूनिफॉर्म सिविल कोड जैसे नए कानून और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाना बड़ी चुनौती है।

साथ ही, यह मामला एक बार फिर यह सवाल उठाता है कि क्या कानून का उपयोग सामाजिक पूर्वाग्रहों को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है या व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा के लिए। अब नज़रें ट्रायल कोर्ट पर हैं, जहाँ सिद्दीकी को अपनी बेगुनाही साबित करनी है।

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आने वाले समय में संवैधानिक मूल्यों और सामाजिक सोच के बीच संतुलन बनाने में मार्गदर्शक बन सकता है।

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रीतु कुमारी OBC Awaaz की एक उत्साही लेखिका हैं, जिन्होंने अपनी पत्रकारिता की पढ़ाई बीजेएमसी (BJMC), JIMS इंजीनियरिंग मैनेजमेंट एंड टेक्निकल कैंपस ग्रेटर नोएडा से पूरी की है। वे समसामयिक समाचारों पर आधारित कहानियाँ और रिपोर्ट लिखने में विशेष रुचि रखती हैं। सामाजिक मुद्दों को आम लोगों की आवाज़ बनाकर प्रस्तुत करना उनका उद्देश्य है। लेखन के अलावा रीतु को फोटोग्राफी का शौक है, और वे एक अच्छी फोटोग्राफर बनने का सपना भी देखती है। रीतु अपने कैमरे के ज़रिए समाज के अनदेखे पहलुओं को उजागर करना चाहती है।

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