राजनीति के दो चेहरे जब सामने आते हैं, तो जनता भ्रमित हो जाती है कि असली कौन है और नकली कौन। बिहार में नीतीश कुमार और महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे इसके सबसे ताजा उदाहरण हैं। दोनों नेता एक वक्त पर पूरी तरह से एक ध्रुव की राजनीति करते थे—एक धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाए और दूसरा कट्टर हिंदुत्व की आवाज़। लेकिन अब राजनीति के दो चेहरे बिल्कुल बदल चुके हैं।
नीतीश कुमार: सेक्युलर से मुसलमान विरोधी कैसे बन गए?
वक्फ बिल पर समर्थन देने के बाद से नीतीश कुमार पर मुसलमान विरोधी होने का आरोप लगने लगा है। इमारत-ए-शरिया जैसे संगठनों ने उनके इफ्तार का बहिष्कार कर दिया। ऐसा माहौल बन गया मानो वक्फ बिल के लिए अकेले नीतीश ही जिम्मेदार हों। यही तो राजनीति के दो चेहरे हैं—एक ओर वे अपने 20 साल के कामों की लिस्ट गिनाते हैं, दूसरी ओर जनता उन्हें धोखेबाज़ मान रही है।
2010 से 2024: मुसलमानों का मोहभंग
2010 में नीतीश कुमार को मुस्लिम समाज ने खूब समर्थन दिया था। लेकिन 2015 में लालू यादव के साथ आरजेडी की वापसी हुई और मुसलमान धीरे-धीरे जेडीयू से दूर होते चले गए। आज आलम यह है कि मुस्लिम वोटबैंक लगभग पूरी तरह राजद के साथ जा चुका है। ऐसे में जेडीयू ने भी शायद सोच लिया हो कि जब वोट नहीं मिलने, तो क्यों न वक्फ बिल पर सरकार के साथ खड़ा हुआ जाए? राजनीति के दो चेहरे यही तो सिखाते हैं—जहाँ फायदा दिखे, वहीं रुख मोड़ लो।
उद्धव ठाकरे: हिन्दुत्व के नेता से सेक्युलर छवि तक
उद्धव ठाकरे कभी शिवसेना के फायरब्रांड हिन्दुत्ववादी नेता माने जाते थे। उनके बयानों में भाजपा तक बौनी दिखती थी। लेकिन जैसे ही उन्होंने कांग्रेस और एनसीपी के साथ सरकार बनाई, उन्होंने सेक्युलर नेता का चोला पहन लिया। संजय निरूपम ने आरोप लगाया कि वक्फ बिल के खिलाफ संसद में वोट के लिए उद्धव ने खुद सांसदों को फोन किए। अब जनता पूछती है—राजनीति के दो चेहरे क्या यही होते हैं?
अपना वोटबैंक खोकर नई छवि बनाने की कोशिश
उद्धव ठाकरे अब अपने मूल वोटबैंक को छोड़ सेक्युलर राजनीति करने में लगे हैं, लेकिन उन्हें शायद यह अंदाज़ा नहीं कि इस खेमें में पहले से दिग्गज मौजूद हैं—जैसे कांग्रेस और शरद पवार। जब जनता को सेक्युलर नेता चुनना होगा, तो वो अनुभवी नेताओं को तरजीह देगी, न कि हाल ही में बदले राजनीति के दो चेहरे को।
नीतीश और उद्धव: भाजपा से निकले लेकिन रास्ता अलग
दोनों नेताओं ने भाजपा के साथ लंबा वक्त बिताया। फर्क यह है कि नीतीश बार-बार पाला बदलते रहे, जबकि उद्धव ने एक बार छोड़कर पीछे नहीं देखा। अब नीतीश कहते हैं कि वे कभी भाजपा से नहीं जाएंगे, वहीं उद्धव लगातार भाजपा विरोध की राजनीति कर रहे हैं। यही हैं राजनीति के दो चेहरे—जहाँ एक नेता एक ही रास्ते पर टिका रहता है, और दूसरा अपनी सुविधा से पाला बदलता रहता है।
वोट बैंक और छवि के बीच फंसे नेता
नीतीश कुमार मुसलमानों के लिए काम कर चुके हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन मुसलमानों का वोट अगर उन्हें नहीं मिल रहा, तो उनकी पार्टी भी व्यावहारिक राजनीति के हिसाब से निर्णय ले रही है। वहीं उद्धव ठाकरे हिंदुत्व से सेक्युलर छवि तक की यात्रा में अपना मूल समर्थक वर्ग खोते जा रहे हैं। राजनीति के दो चेहरे अक्सर अपने हित में जनता की भावनाओं से खेलते हैं।