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वक्फ कानून विवाद पर संघी फारूक अब्दुल्ला का बयान, नेशनल कॉन्फ्रेंस ने जताया विरोध

वक्फ कानून विवाद को लेकर जम्मू-कश्मीर में सियासी हलचल तेज हो गई है। फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि नेशनल कॉन्फ्रेंस इस कानून का विरोध करती है और सुप्रीम कोर्ट से न्याय की अपेक्षा है।

वक्फ कानून विवाद को लेकर जम्मू-कश्मीर की राजनीति में एक बार फिर उबाल देखने को मिल रहा है। गांदरबल में मीडिया से बातचीत के दौरान नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने स्पष्ट किया कि उनकी पार्टी इस कानून का कड़ा विरोध करती है। उन्होंने कहा कि इस मसले पर चर्चा फिलहाल नहीं हो सकती क्योंकि मामला अब सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। उन्होंने यह भी कहा कि वक्फ से संबंधित बयान अब मुख्यमंत्री देंगे और वे खुद इस पर आगे कुछ नहीं बोलेंगे।

जम्मू-कश्मीर विधानसभा में सोमवार को इस मुद्दे पर भारी हंगामा हुआ। नेशनल कॉन्फ्रेंस के विधायकों नजीर गुरेज़ी और तनवीर सादिक ने प्रश्नकाल स्थगित कर वक्फ पर चर्चा कराने की मांग की, लेकिन स्पीकर अब्दुल रहीम राथर ने प्रस्ताव खारिज कर दिया। इसके बाद विपक्षी विधायकों ने विरोध जताया और सदन में शोरगुल शुरू हो गया। स्थिति इतनी बिगड़ गई कि कांग्रेस और बीजेपी विधायकों के बीच तीखी बहस के बाद हाथापाई तक की नौबत आ गई।

फारूक अब्दुल्ला ने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में उचित फैसला करेगा और सभी पक्षों को न्याय मिलेगा। उन्होंने कहा कि उम्मीद इंसान को जिंदा रखती है और इसी उम्मीद पर नेशनल कॉन्फ्रेंस भी इस मामले में आगे बढ़ रही है। उन्होंने सरकार से अपील की कि जब तक अदालत इस पर फैसला नहीं सुनाती, तब तक किसी भी प्रकार की जल्दबाज़ी से बचा जाए।

जब उनसे केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के जम्मू-कश्मीर दौरे पर सवाल किया गया, तो उन्होंने कहा कि यह स्वागतयोग्य कदम है। उन्होंने कहा कि गृहमंत्री को राज्य की स्थिति का प्रत्यक्ष अनुभव होना चाहिए ताकि सही निर्णय लिए जा सकें। साथ ही उन्होंने राज्य का दर्जा बहाल करने की भी मांग दोहराई।

इस कानून के खिलाफ सिर्फ जम्मू-कश्मीर से ही नहीं, बल्कि देश के अन्य हिस्सों से भी विरोध दर्ज कराया गया है। कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद, AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी, इमरान प्रतापगढ़ी और राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल जैसे कई नेताओं ने इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। इन नेताओं का कहना है कि यह कानून अल्पसंख्यकों की धार्मिक संपत्तियों और स्वायत्तता पर चोट है।

विपक्ष का कहना है कि यह कानून सरकार की अल्पसंख्यक संस्थानों पर नियंत्रण की कोशिश है, जबकि सरकार का दावा है कि यह पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए जरूरी है। इस मुद्दे पर देश की राजनीतिक और धार्मिक संस्थाएं दो ध्रुवों में बंटी हुई हैं और अब निर्णय की पूरी जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट पर है।

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राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह विवाद आगामी चुनावों पर असर डाल सकता है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां अल्पसंख्यक समुदाय की बड़ी जनसंख्या है। अब सभी की नजर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिकी है जो आने वाले दिनों में इस बहस को नई दिशा देगा।

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