प्रचलित इतिहास में सल्तनत और मुगल काल के शासकों की चर्चा अक्सर मंदिरों के विध्वंसक के रूप में होती रहती है, मगर आए दिन ऐसे भी तथ्य उजागर होते रहते हैं जो इसके उलट होते हैं। हाल में हमारे उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर ज़िले में दो ऐसे तथ्य उजागर हुए हैं, जिनसे पता चलता है कि एक मंदिर औरंगज़ेब के कार्यकाल (सन 1670 के बाद का काल) में उस समय बना जब मंदिरों के निर्माण पर रोक का आदेश था। दूसरा तथ्य यह मिला कि यहां के विख्यात जिगिनधाम के लक्ष्मी नारायण मंदिर को अलाउद्दीन खिलजी ने 84 बीघा ज़मीन तथा आरती आदि के लिए प्रतिदिन एक रुपया (तत्कालीन मुद्रा) का अनुदान स्वीकार किया था, जो 1947 तक मंदिर के महंथ को मिलता रहा। ज़मीन का मालिकाना हक आज भी मंदिर के पास है।
जिगिनाधाम के लक्ष्मी नारायण मंदिर का इतिहास बहुत पुराना प्रतीत होता है। यह मंदिर ग्यारहवीं शताब्दी के अंत या उससे भी पहले बना होगा। ठीक तारीख वर्तमान महंथ विजयदास जी को नहीं मालूम है, लेकिन 12वीं शताब्दी के प्रारंभ में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी द्वारा दिए गए अनुदान संबंधी अभिलेख से यह प्रतीत होता है कि इसका वजूद 12वीं सदी के अंत में निश्चित रूप से था, क्योंकि यही वह समय था जब खिलजी ने ग्रांट संबंधी फरमान जारी किया था।
इस बारे में मंदिर के वर्तमान महंथ विजयदास उर्फ महंथ बबलू जी बताते हैं कि 12वीं शताब्दी के अंत में अलाउद्दीन खिलजी अपने विजय अभियान के तहत जिगिना ग्राम से दो किमी दूर ग्राम कोपा में फौज के साथ डेरा डाले हुए थे। वे एक ईश्वर में विश्वास करते थे। मंदिर की महत्ता सुनकर वे यहां भी आए। यद्यपि वे बहुदेववाद में विश्वास नहीं करते थे, मगर यहां आने पर उन्होंने भगवान विष्णु व भगवान शंकर के चमत्कार देखकर प्रभावित हो गए। इसके बाद उन्होंने मंदिर को 84 बीघा ज़मीन का पट्टा दे दिया और मंदिर में पूजा व आरती के लिए तत्कालीन मुद्रा के रूप में एक रुपया प्रतिदिन का ग्रांट भी तय कर दिया, जो ब्रिटिश राज में भी जारी रहा। इसके बाद मंदिर का विस्तार किया गया। यहां बाज़ार लगने लगी। वर्ष में एक बार टैक्स फ्री एक माह का मेला भी लगने लगा। तब से यह परंपरा चली आ रही है।
महंथ विजयदास बताते हैं कि यह अभिलेख आज भी बस्ती ज़िले के मुहाफ़िज़ख़ाने (कलेक्ट्रेट अभिलेखागार) में सुरक्षित हैं। आज़ादी के बाद से उन्होंने एक रुपया प्रतिदिन का अनुदान लेना भी बंद कर दिया। इस बारे में वे बताते हैं कि आज़ादी के समय एक रुपया प्रतिदिन यानी 365 रुपये सालाना, यानी प्रति माह लगभग 30 रुपये के लिए इससे ज़्यादा किराया-भाड़ा, रुकने-ठहरने में लग जाता था। जो बचता था, वह बदलते समय के साथ अत्यल्प था। मंदिर की तरफ से एक रुपये की नई वैल्यू तय करने की मांग रखी गई, मगर आज़ाद भारत में उनकी मांग मानी नहीं गई। फिर मंदिर ने वह अनुदान लेना बंद कर दिया। सरकारी अभिलेखों में आज भी यह बात दर्ज है।
वर्तमान में महंथ रविदास ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराकर उसका रूप निखार दिया है। जलाशय की स्थिति भी ठीक कर दी गई है। इसमें भारी धन खर्च किया गया है। आज भी वहां नियमित रूप से मेला लगता है। मगर पुरातात्विक महत्व के इस प्राचीन मंदिर को आज भी सरकारी संरक्षण की आवश्यकता है। यह मंदिर सांप्रदायिक सद्भाव का भी प्रतीक है। यहां मुस्लिम आबादी अपेक्षाकृत अधिक है। सभी को मंदिर से लगाव है, सभी इसे अपने इलाके की धरोहर मानते हैं और सरकार से विशेष अनुदान की अपेक्षा भी करते हैं।
इसी के साथ ध्यान देने की बात है कि जिस अलाउद्दीन खिलजी को हमें एक क्रूर शासक बताया जाता है, उसका एक पक्ष यह भी है। आगे न जाने हमें इतिहास के ढके-छुपे तथ्य और कौन-कौन से देखने को मिलेंगे, मगर क्या प्रचलित इतिहास में ऐसी घटनाओं को जगह मिल सकेगी? यह बड़ा सवाल है।