जाति जनगणना को लेकर देश में लंबे वक्त से बहस चल रही थी। कई सामाजिक संगठन और राजनीतिक दल इसकी मांग कर रहे थे कि जातियों की सही-सही गिनती होनी चाहिए, ताकि नीतियां ज्यादा असरदार बन सकें। अब केंद्र सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए ऐलान किया है कि अगली जनगणना में जाति से जुड़ी जानकारी भी जुटाई जाएगी। इसके बाद से देश की राजनीति में जबरदस्त हलचल मची हुई है।
सरकार के इस फैसले को विपक्ष ने अपनी जीत बताया है, वहीं केंद्र का कहना है कि यह सामाजिक न्याय को मजबूत करने की कोशिश है। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि जाति जनगणना सिर्फ केंद्र का अधिकार है, और राज्यों द्वारा कराए गए जाति सर्वेक्षण इसकी जगह नहीं ले सकते। उन्होंने साफ किया कि कैबिनेट की राजनीतिक मामलों वाली समिति (CCPA) ने इसे लेकर हरी झंडी दे दी है। अब यहां पर सवाल उठता है कि क्या होती है जाति जनगणना और ये कैसे की जाती है? तो चलिए जानते हैं.
जाति जनगणना क्या होती है
जाति जनगणना एक विशेष सर्वे होता है जिसमें देश के लोगों की जातियों का रिकॉर्ड तैयार किया जाता है। इसमें सिर्फ जाति ही नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति, नौकरी, आमदनी जैसी जानकारियां भी इकट्ठा की जाती हैं। इसका मकसद होता है यह समझना कि कौन-सी जातियां किन हालात में हैं, किसे सरकारी मदद मिल रही है और किसे अब भी जरूरत है।
यह डेटा सरकार को यह तय करने में मदद करता है कि किन जातियों के लिए आरक्षण, स्कॉलरशिप, या दूसरी योजनाएं जरूरी हैं। यह सामाजिक असमानता को दूर करने की दिशा में एक अहम कदम माना जाता है।
यह प्रक्रिया कैसे पूरी होती है?
जनगणना करने वाले कर्मचारी हर घर जाकर पूछते हैं कि घर के सदस्य किस जाति से हैं और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति क्या है। इसके बाद सारी जानकारी रिकॉर्ड में ली जाती है और उसका विश्लेषण किया जाता है।
इससे यह भी पता चलता है कि सरकारी योजनाएं सही जगह तक पहुंच रही हैं या नहीं। उदाहरण के तौर पर, किसी योजना का फायदा सिर्फ कुछ खास वर्गों तक सिमट कर रह गया है या वाकई जरूरतमंदों तक भी पहुंच रहा है।
भारत में पिछली जाति जनगणना कब हुई थी?
ब्रिटिश हुकूमत ने 1931 में आखिरी बार जातियों की पूरी जनगणना करवाई थी। उसके बाद आजाद भारत में कभी भी सभी जातियों की गिनती नहीं हुई। हां, हर दशक में SC (अनुसूचित जाति) और ST (अनुसूचित जनजाति) का डेटा जरूर इकट्ठा किया गया हैं।
2011 में यूपीए सरकार ने एक बार कोशिश की थी, SECC यानी सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना कराई गई थी। लेकिन उस डेटा की सटीकता पर सवाल उठे और आखिरकार वो रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई।
ऐतिहासिक नजरिया:
जातिगत जनगणना की शुरुआत 1881 से हुई थी। 1931 तक हर दस साल में जातियों का रिकॉर्ड लिया जा रहा। 1931 में आखिरी बार पूरी जनगणना में जातियों के आंकड़े जुटाए गए। इसके बाद इसे रोक दिया गया।
भारत में SC-ST की जनसंख्या का अनुपात भी लगातार बढ़ा है, 1971 में यह करीब 21.5% था, जबकि 2011 में यह बढ़कर करीब 25.3% हो गया।
राजनीतिक असर और बवाल:
जाति जनगणना सिर्फ आंकड़ों की बात नहीं है, इसका सीधा असर राजनीति और सत्ता समीकरणों पर पड़ता है। अगर OBC की असल जनसंख्या आंकड़ों में ज्यादा निकलती है, तो उनकी आरक्षण की मांग और मजबूत हो सकती है।
विपक्षी दल खासकर कांग्रेस, RJD, JDU, सपा और टीएमसी जैसे दल इसे अपनी जीत मान रहे हैं, क्योंकि ये पार्टियां सालों से इसकी मांग कर रही थीं। वहीं बीजेपी का कहना है कि ये कदम सामाजिक संतुलन बनाने और सबको बराबरी देने की दिशा में उठाया गया है।
अब सभी की निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि इस जनगणना का डेटा कब आता है, उसमें क्या सामने आता है और वो देश की नीतियों व चुनावी राजनीति को कैसे प्रभावित करता है।