भारतीय समाज की सबसे छोटी राजनीतिक इकाई जाति होती है। इसलिए यह बहुत ज़रूरी हो जाता है कि सरकार समय-समय पर जाति जनगणना कराती रहे। यह जाति जनगणना सरकार को प्रत्येक वर्ग के लोगों तक सरकारी योजनाओं को पहुँचाने में बहुत मदद करती है। ये सरकारी योजनाएं जातीय उत्थान के लिए और समाज को सशक्त बनाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
भारत में मंडल कमीशन को लागू करके समाज में कुछ दशक पहले वर्गीय चेतना विकसित करने की कोशिश की गई थी। इसका उद्देश्य था कि समाज के पिछड़े वर्गों को शिक्षा और नौकरी में आरक्षण देकर आगे बढ़ने का मौका देना, ताकि समाज में बराबरी और वर्गीय एकता आ सके। लेकिन भारतीय जनमानस में सदियों से बसी जातीय चेतना ने इस प्रयास को कमजोर कर दिया। लोग खुद को पहले जाति से जोड़ते हैं, फिर वर्ग से। इसी कारण मंडल कमीशन के ज़रिए जो सामाजिक जागरूकता और समानता लाने की कोशिश की गई थी, वह जातिवादी सोच की वजह से पूरी तरह सफल नहीं हो पाई।
वर्गीय चेतना की बुनियाद मंडल कमीशन के सबसे ऊपरी टहनी पर लगे सबसे खूबसूरत फल “आरक्षण” पर जातीय चेतना ने सर्वाधिक चोट पहुंचाई है।
इससे पहले कि जातीय चेतना से मंडल आधारित सामाजिक न्याय का जनाजा निकलता, बिहार सरकार ने सामाजिक न्याय के चीर हरण को जाति जनगणना की चादर से सामाजिक न्याय की बुनियाद को स्थिरता देने का प्रयास किया है।
जाति गणना से सामाजिक न्याय का मार्ग सुगम होगा और भारतीय राजनीति में युगांतरकारी परिवर्तन भी आएगा।
मंडल कमीशन से बाहर रही जातियां, संभावित वर्गीय चेतना को जातीय चेतना भड़काकर कमजोर करती रही हैं, जिससे मुट्ठी भर लोग सत्ता संसाधनों पर अपना प्रभाव बनाए रख सके।
मंडल समूह के जिस वर्गीय चेतना पर सामाजिक न्याय के विरोधियों ने जातीय चेतना का पत्थर चलाया था, उसी जातीय चेतना के पत्थर को सामाजिक न्याय के प्रहरीयों ने सामाजिक न्याय का हथियार बना दिया है।
जाति आधारित आरोप-प्रतारोप ने कई बार राजनीतिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया है, ऐसे में जातीय जनगणना से मंडल समूह की जातियों की कुल्हाड़ी पर पैर मारने की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी।
कोर्ट का मामला
जाति जनगणना को लेकर मामला फिलहाल अदालत में लंबित है। इस विषय पर कई याचिकाएं दाखिल की गई हैं, जिनमें इसकी संवैधानिक वैधता, गोपनीयता के उल्लंघन की आशंका और केंद्र व राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठाए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न उच्च न्यायालयों में इस पर गंभीर बहस चल रही है। एक पक्ष का कहना है कि जाति आधारित आंकड़े सामाजिक न्याय की प्रभावी नीतियों के लिए ज़रूरी हैं, जबकि दूसरा पक्ष इसे समाज को और अधिक बांटने वाला कदम मानता है। अब यह अदालत पर निर्भर है कि वह तय करे, क्या जाति जनगणना सामाजिक न्याय की ज़रूरत है या सामाजिक संतुलन के लिए खतरा?
बिहार जाति जनगणना रिपोर्ट 2023
बिहार सरकार द्वारा जारी 2023 की जाति जनगणना रिपोर्ट के अनुसार राज्य की जनसंख्या का विस्तृत वितरण विभिन्न जातीय समूहों में इस प्रकार है:
पिछड़ा वर्ग (OBC)
जाति | प्रतिशत (%) |
यादव | 14.26% |
कुशवाहा | 4.21% |
कुर्मी | 2.87% |
बनिया | 2.31% |
अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC)
जाति | प्रतिशत (%) |
केवर्त | 0.2% |
केवट | 0.71% |
मल्लाह | 2.6% |
तेली | 2.81% |
नाई | 1.59% |
धनुक | 2.13% |
गंगोटा | 0.4% |
चंद्रवंशी (कहार) | 1.64% |
नोनिया | 1.91% |
प्रजापति (कुम्हार) | 1.40% |
बढ़ई | 1.45% |
बिंद | 0.98% |
अनुसूचित जातियाँ (SC)
जाति | प्रतिशत (%) |
चमार / मोची / रविदास / चर्मकार | 5.25% |
दुसाध / धारी / दराही | 5.31% |
मुसहर | 3.08% |
पासी | 0.98% |
मेहतर | 0.19% |
अनारक्षित (General वर्ग)
जाति | प्रतिशत (%) |
ब्राह्मण | 3.65% |
राजपूत | 3.45% |
भूमिहार | 2.87% |
कायस्थ | 0.60% |