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उपराष्ट्रपति चुनाव: कांग्रेसी ओबीसी बनाम संघी ओबीसी

सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने महाराष्ट्र के राज्यपाल सी.पी. राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया है। यह निर्णय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की सिफारिश पर लिया गया। भाजपा अब जोर-शोर से प्रचार कर रही है कि राधाकृष्णन तमिलनाडु के ओबीसी हैं, ताकि वह दक्षिण भारत में ओबीसी वोट हासिल कर सके। राधाकृष्णन गौंदर समुदाय से आते हैं, जो तमिलनाडु की एक मध्यम श्रेणी की ओबीसी जाति है।

इस कदम के पीछे कांग्रेस द्वारा 25 जुलाई, 2025 को दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में आयोजित ओबीसी सम्मेलन और जातिगत जनगणना पर राहुल गांधी के रुख का असर साफ देखा जा सकता है।

तमिलनाडु की राजनीति और भाजपा की रणनीति

1967 से तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन की देन रही कि राज्य की राजनीति पर ओबीसी नेतृत्व हावी रहा। केवल जयललिता का कार्यकाल इस परंपरा का अपवाद था। भाजपा, राधाकृष्णन को आगे कर इस परंपरा को तोड़ना चाहती है और द्रविड़ विचारधारा की रीढ़ कमजोर करना चाहती है।

मंडल के बाद कांग्रेस और ओबीसी

मंडल आयोग के बाद कांग्रेस ने धीरे-धीरे ओबीसी का समर्थन खो दिया। 2014 तक कांग्रेस का आधार मुसलमान, दलित, आदिवासी और कुछ ऊँची जातियां थीं। भाजपा ने इसी खाली जगह का फायदा उठाया और ओबीसी समर्थन को हथियाकर सत्ता पर काबिज हो गई।

भाजपा-आरएसएस का फर्जी ओबीसी एजेंडा

आरएसएस का इतिहास शूद्र कृषक जातियों के विरोध से भरा पड़ा है।

  • 1970 के दशक में जब इंदिरा गांधी ने भूमि सुधार और प्रिवी पर्स समाप्त करने की पहल की, तो आरएसएस ने खुलकर इसका विरोध किया।
  • गुजरात में नरेंद्र मोदी का राजनीतिक करियर व्यापारी वर्ग और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर आधारित रहा, न कि ओबीसी या किसानों के नेतृत्व पर।
  • जब मोदी स्वयं को “ओबीसी” नेता कहते हैं, तो असल उद्देश्य सिर्फ वोट हासिल करना होता है।

भाजपा अब दावा करती है कि उसका प्रधानमंत्री ओबीसी है, कई मंत्री और मुख्यमंत्री ओबीसी हैं। मगर हकीकत यह है कि इन नेताओं को पार्टी में असली नीति-निर्माण का अधिकार नहीं है।

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भाजपा ने कैसे अपमानित किया अपने ही ओबीसी उपराष्ट्रपतियों को

भाजपा के दो पूर्व उपराष्ट्रपति – एम. वेंकैया नायडू (कम्मा जाति, आंध्र प्रदेश) और जगदीप धनखड़ (जाट, राजस्थान) – दोनों कृषक जातियों से आए। नायडू को कैबिनेट से हटाकर उपराष्ट्रपति पद पर धकेला गया और 75 वर्ष से पहले ही उनका राजनीतिक करियर खत्म कर दिया गया। यही हाल धनखड़ का भी है, जिन्हें केवल प्रतीक के रूप में उपयोग किया गया।

ओबीसी बनाम शूद्र : एक संवैधानिक स्थिति

ओबीसी एक संवैधानिक श्रेणी है, जिसमें 90% शूद्र शामिल हैं। कुछ उच्च कृषक जातियां (जैसे आंध्र के कम्मा और उत्तर भारत के जाट) खुद को “पिछड़ा” कहलाने में अपमान समझती रहीं और आरक्षण से बाहर रहीं। जबकि तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों में सभी शूद्र जातियां आरक्षण के अंतर्गत हैं।

कांग्रेस और शूद्र/ओबीसी नेतृत्व

कांग्रेस के इतिहास में शूद्र/ओबीसी नेताओं की एक लंबी परंपरा रही है:

  • सरदार वल्लभभाई पटेल – किसानों के बारडोली आंदोलन के नेता।
  • कामराज नाडर – दक्षिण भारत के ताड़ी मजदूरों और किसानों के बड़े नेता।
  • व्हाई.बी. चव्हाण – महाराष्ट्र से उभरे राष्ट्रीय नेता।
  • निजलिंगप्पा – कर्नाटक से कांग्रेस के ओबीसी नेता।

इन नेताओं ने नेहरू और इंदिरा गांधी तक को चुनौती दी। यह कांग्रेस की ताकत थी कि शूद्र/ओबीसी नेतृत्व पार्टी में शीर्ष पर पहुंचा।

इसके उलट, भाजपा-आरएसएस ने आज तक पटेल या कामराज जैसे कद का कोई ओबीसी नेता देश को नहीं दिया। उनके ओबीसी चेहरे पार्टी पर निर्भर, सीमित और प्रतीकात्मक रहे हैं।

भाजपा का असली चेहरा : किसान विरोधी नीतियां

  • 2020 में लाए गए तीन कृषि कानून सीधे तौर पर किसानों और ओबीसी कृषक समुदायों के खिलाफ थे।
  • इन कानूनों का उद्देश्य स्थानीय बाजारों को कॉर्पोरेट घरानों के हवाले करना था।
  • शूद्र/ओबीसी बहुल किसान आंदोलन ने भाजपा की इस योजना को विफल किया।

इतिहास गवाह है कि संघ-भाजपा ने कभी भी किसानों के आंदोलन का नेतृत्व नहीं किया। उनकी नीति हमेशा ज़मींदारों, व्यापारियों और कॉर्पोरेट्स के पक्ष में रही।

राहुल गांधी और जातिगत जनगणना

राहुल गांधी ने कांग्रेस को दो बिंदुओं पर नेहरू युग में वापस लाया है:

  1. जातिगत जनगणना – जिससे शूद्र/ओबीसी को उम्मीद है कि वे राष्ट्रीय राजनीति में शीर्ष स्थान पा सकेंगे।
  2. संवैधानिक निष्ठा – कांग्रेस में शूद्र/ओबीसी नेतृत्व पहले भी पटेल और कामराज जैसे नेताओं के रूप में शीर्ष पर रहा है।

आरएसएस-भाजपा में आज भी कोई ऐसा नेता नहीं है जिसका आधार कृषक जातियां हों। उनके ओबीसी चेहरे केवल सांप्रदायिक राजनीति तक सीमित हैं।

मौजूदा चुनाव : राधाकृष्णन बनाम जस्टिस रेड्डी

भाजपा के उम्मीदवार राधाकृष्णन आरएसएस के प्यादे हैं, जबकि इंडिया गठबंधन ने जस्टिस सुदर्शन रेड्डी को उम्मीदवार बनाया है। रेड्डी एक शूद्र कृषक परिवार से आते हैं, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज रहे हैं और मानवाधिकारों के लिए आजीवन संघर्षरत रहे हैं।

तेलंगाना सरकार ने उन्हें जाति सर्वेक्षण अध्ययन समूह का अध्यक्ष बनाया था। उनके पास अनुभव, दृष्टि और संवैधानिक निष्ठा है।

नतीजा

भाजपा और आरएसएस का दावा कि “ओबीसी उपराष्ट्रपति” बनाने से समुदाय सशक्त होगा, केवल छलावा है। दशकों से वे शूद्र/ओबीसी की ज़मीन और राजनीतिक ताकत को कमजोर करने का काम करते आए हैं। असली सवाल यह है कि क्या ओबीसी समुदाय प्रतीकात्मक राजनीति के झांसे में रहेगा या इतिहास से सबक लेकर असली प्रतिनिधित्व और सशक्तिकरण की राह चुनेगा।

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प्रिंस पटेल एक लेखक, शिक्षक, चुनावी रणनीतिकार तथा राजनीतिक विश्लेषक है। प्रिंस पटेल सामाजिक न्याय की लड़ाई में पिछड़ों (OBC) का प्रतिनिधित्व करते हुए आकड़ों की प्रस्तुति तथा उससे संबधित हकों की बात रखते हैं, साथ ही "All India OBC Student Association" के बिहार प्रांत अध्यक्ष मनोनीत है। उनकी पहली पुस्तक "प्रीतिहास" जो एक महिला कबड्डी खिलाड़ी पर लिखी हुई उपन्यास है तथा दूसरी पुस्तक "कृष्णार्ण" में बिहार राजनीत तथा बहुजनो के हक एंव अधिकार से संबंधित लड़ाईयों की व्याख्या सहित लालू प्रसाद के राजनैतिक जीवन को उल्लेखित किया गया है।

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