मैं जिनके लिए लड़ा, वे मेरे अपने नहीं थे, और मैं जिनसे लड़ा, वे मेरे दुश्मन नहीं थे… अभी यह पंक्तियाँ पुलिसकर्मी छोटे भाई साहुल के वॉल पर पढ़ीं। यह पंक्तियाँ पत्रकार की व्यथा को बेहद सटीक ढंग से अभिव्यक्त करती हैं। पत्रकार का जीवन मैदान-ए-जंग सरीखा होता है, जहाँ वह हर रोज़ लड़ता है, अन्याय, शोषण, भ्रष्टाचार, माफिया, पुलिस और सत्ता के दमन के विरुद्ध। मगर विडंबना यह है कि जिसके लिए वह लड़ता है, वह समाज, वह पीड़ित, अक्सर उसका अपना नहीं होता। और जिससे वह टकराता है, वह नेता, पुलिस अधिकारी या माफिया, ज़रूरी नहीं कि उसका व्यक्तिगत दुश्मन हो। फिर भी पत्रकार इस लड़ाई का अकेला सिपाही होता है, जिसे न तो कोई ढाल मिलती है और न ही पीठ थपथपाने वाला कंधा।
पत्रकारिता का धर्म होता है सत्य का साथ देना, सत्ता से सवाल करना, और शोषितों के पक्ष में खड़े रहना। परंतु सच्चाई यह है कि जब पत्रकार किसी शोषित-उत्पीड़ित के लिए आवाज़ उठाता है, तो आरोपी उसके खिलाफ षड्यंत्र में जुट जाता है। उस वक्त वही समाज, जो पत्रकारों पर सत्य न लिखने समेत तरह-तरह के आरोप लगाता है, पत्रकार के खिलाफ साजिश पर मौन हो जाता है।
ऐसे लोग डर जाते हैं, कन्नी काट लेते हैं या चुपचाप तमाशा देखते हैं। जिनके लिए पत्रकार न्याय की माँग करता है, वही लोग काम निकलने के बाद या पीठ पीछे उसे झगड़ालू, पंगेबाज़ या पक्षपाती कहने लगते हैं। दूसरी ओर, जिनसे पत्रकार सवाल करता है, वह नेता, अधिकारी, धनपशु या गुंडे, ज़रूरी नहीं कि उसके व्यक्तिगत शत्रु हों, फिर भी पत्रकार उनके निशाने पर आ जाता है।
यही पत्रकार की त्रासदी है, उसे समर्थन नहीं मिलता, लेकिन विरोधियों की साजिश की सूची में उसका नाम ज़रूर दर्ज हो जाता है। जब पत्रकार किसी के हक और न्याय की लड़ाई लड़ता है, तब न उसकी जीत पर तालियाँ बजती हैं, न कोई पुरस्कार मिलना तय होता है। बल्कि उसे झूठे मुकदमे, धमकियाँ, सामाजिक बहिष्कार, ट्रोलिंग और कभी-कभी हिंसा तक का सामना करना पड़ता है। फिर भी वह कलम उठाता है, कैमरा चलाता है और सच्चाई को उजागर करता है। क्योंकि उसका धर्म ‘सच’ होता है, न कि ‘समर्थन’।
पत्रकार के पास कोई राजनीतिक दल नहीं होता, कोई जातीय गुट नहीं होता, न ही किसी गिरोह का सहारा। उसका हथियार उसकी लेखनी है, उसका कवच उसका विवेक। वह नायक भी है और बलि का बकरा भी। यही कारण है कि पत्रकार को समाज के हाशिए पर रखा जाता है, जब तक वह किसी के पक्ष में है, तब तक ठीक है, लेकिन जैसे ही वह सवाल करता है, लोग उसकी मंशा पर प्रश्नचिह्न लगाने लगते हैं।
अंत में यही कहा जा सकता है कि पत्रकार न तो सिर्फ अपना होता है, न पराया। वह एक जरिया है उस सच का, जो किसी को पसंद नहीं।
जीते जी बहस में घसीटा जाता है, और मरने के बाद पुण्यतिथि पर याद किया जाता है।