जातिगत जनगणना तो पहले भी होता आया है उसी आधार पर एसटी एससी आरक्षण तय होता रहा है, बदलाव केवल ये हुआ है ओबीसी, अनारक्षित में शामिल जातियों के गणना के अलावा ईसाई, मुस्लिम,जैन,सिख,पारसी आदि अल्पसंख्यक समुदाय के भीतर भी जातियों का गणना होगा और शायद वैसे लोग जिनका धर्मांतरण हो चुका है उनका डीलिस्टिंग का प्रारूप तैयार होगा ऐसा ही राजनीतिक गलियारों में चर्चा है।
भाजपा को दक्षिण भारत में भाषाई क्षेत्रवाद के कारण इंट्री मुश्किल हो रहा है जातिगत जनगणना के बाद वहां भी स्थापित होना है इसलिए जातिगत जनगणना के साथ साथ परिसीमन और महिला आरक्षण के माध्यम से कई राजनीति दलों और प्रभावशाली नेताओं के क्षेत्र को
प्रभावित करने वाला जनसंख्या बहुल जातियों के क्षेत्रों में बदलाव के साथ साथ कद्दावर विरोधियों के क्षेत्र को महिला आरक्षित करने का संभावना जताया जा रहा है।
यह भी माना जा रहा है कि जातीय जनगणना से सरकार की कल्याणकारी योजनाएं और ज्यादा असरदार बन सकती हैं। इससे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आवास जैसी जरूरी सुविधाएं सीधे उन समुदायों तक पहुंचाई जा सकेंगी जिन्हें वाकई ज़रूरत है। इसका मकसद “सबका साथ, सबका विकास” के वादे को ज़मीन पर उतारना है।
जातीय आंकड़ों के ज़रिए सरकार को यह समझने में मदद मिलेगी कि किन वर्गों को अब भी पीछे छोड़ा जा रहा है। इससे न सिर्फ सामाजिक असमानताएं दूर करने में मदद मिलेगी, बल्कि पिछड़े तबकों की आर्थिक हालत को समझकर उनके लिए खास नीतियां भी बनाई जा सकेंगी। यह कदम सामाजिक संतुलन की तरफ एक बड़ा और जरूरी फैसला माना जा रहा है।