लगभग चार दशकों से भारतीय इतिहासकार एक अजीब झंझावत के शिकार हैं। वे तथ्यों का आकलन तो करते हैं, मगर निष्कर्ष पहले ही तैयार कर लेते हैं। ठीक उसी तरह जैसे 19वीं सदी से आज़ादी के समय तक भारतीय संदर्भ में अंग्रेज किया करते थे। अब कुछ नए भारतीय इतिहासकार इतिहास को दो नज़रों से पेश करते हैं। इनमें एक वर्ग वह है जो मध्यकाल को देशभक्ति-पूर्ण सांप्रदायिक चश्मे से खंगालते हैं, जबकि दूसरा वर्ग किसी भी घटना को सांप्रदायिक सौहार्दपूर्ण, सेक्युलर नज़रिया अपनाकर देखता है। मगर जो वास्तविक इतिहासकार हैं, वे उसमें अपना दृष्टिकोण न रखकर कार्यप्रणाली (मेथडोलॉजी) के आधार पर इतिहास के तथ्यों को ज्यों का त्यों परोसते हैं। इनमें उनका कोई निजी नज़रिया नहीं होता। फलतः पाठक को सच समझने में आसानी होती है। वर्तमान में चूंकि बाबर और राणा सांगा बहुत चर्चा में हैं, लिहाज़ा बात यहीं से शुरू करते हैं।
सन् 1527 के खानवा के युद्ध में बाबर और राणा सांगा की भिड़ंत को हिंदूवादी इतिहासकार हिंदू शासक बनाम मुस्लिम शासक का युद्ध साबित करते दिखते हैं। वे यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि बाबर विदेशी था और विदेशी आक्रांता को रोकने का राणा सांगा का प्रयास देशभक्ति-पूर्ण और हिंदुत्व की रक्षा करना था। इसी युद्ध को सेक्युलर इतिहासकार अपनी दलीलें देते हुए कहते हैं कि राणा सांगा का साथ देने के लिए हसन खान मेवाती, महमूद लोदी जैसे मुसलमान सेनानी थे, तो बाबर के साथ अमरकोट का हिंदू शासक भी था। लिहाज़ा यह हिंदू-मुस्लिम का युद्ध कदापि नहीं था।
उपरोक्त दोनों दलीलें भारतीय समाज के दो अलग-अलग पक्षों को अच्छी तो लग सकती हैं, लेकिन असलियत वैसी नहीं है जैसी दोनों पक्ष बताते हैं। तथ्यों के आधार पर जो सच बनता है, वह हिंदूवादी और धर्मनिरपेक्षतावादी दोनों को ही ग़लत साबित करता है।
दरअसल सन् 1526 में बाबर ने पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी को हराया था। खानवा में राणा सांगा का साथ देने वाला महमूद लोदी, इब्राहीम का सगा भाई तथा हसन खान मेवाती भी इब्राहीम लोदी का सगा मौसेरा भाई और दिल्ली का कोतवाल था। ऐसे में वे खानवा युद्ध में बाबर का साथ कैसे दे सकते थे, जिसने लोदी वंश का अंत कर इब्राहीम लोदी की हत्या की थी? यही कारण है कि वे राणा सांगा के साथ इस उम्मीद में गए कि खानवा में यदि बाबर हारा, तो वे दिल्ली पर कब्ज़ा करने का मौका पा सकते हैं। राणा सांगा ने भी अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए उन्हें ऐसा आश्वासन दिया था।
दूसरी तरफ बाबर ने जब खानवा की ओर कूच किया, तो उसकी मदद में अमरकोट के राजपूत सैनिक भी थे (राजा नहीं था)। राजा अमरकोट को बाबर के गन पाउडर और तोपों पर पूरा भरोसा था। इसलिए उसने बाबर का साथ देने का फैसला लिया। (यह वही अमरकोट है, जहां के राजा के घर अकबर का जन्म हुआ था।)
यही नहीं, खानवा के युद्ध में राणा सांगा को कमज़ोर पड़ते देख, बीच लड़ाई में पाला बदलने वाला राणा सांगा का सबसे विश्वसनीय सरदार और रायसेन का राजा सिल्हादी तंवर था। उसे जैसे ही लगा कि जंग में राणा की पराजय संभावित है, उसने तत्काल राजनीतिक निर्णय लिया और युद्ध के बीच में ही बाबर के साथ चला गया।
मित्रों, अब सारे तथ्यों पर विचार करें, इसमें ‘हिंदू हित’ तथा ‘देश हित’ की बात कहाँ आती है? यही नहीं, इसमें ‘सांप्रदायिक सौहार्द्र’ तथा ‘भाईचारा’ किस कोण से दिखता है? जो भी दिखता है, वह है येन-केन-प्रकारेण सत्ता के लिए हर हथकंडा अपनाना।
एक समय राणा सांगा और इब्राहीम लोदी एक-दूसरे के दुश्मन थे, लेकिन बाबर से सत्ता बचाने के लिए दोनों गुट एक हो गए। इसी प्रकार, जब राणा की हार तय होने लगी, तो ‘हिंदू हित’ व ‘देश हित’ के कथित रक्षक सिल्हादी तंवर और राजा अमरकोट, अपना राज बचाने के लिए उसी कथित आक्रांता और विदेशी बाबर के साथ खड़े हो गए।